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________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविधेचन ] [२०७ प्रकृतीनां तद्घातेऽवश्यं रसघातात् ; अन्यथा पराघातनामफर्मोदयात् केवली पराहननाद्यपि कुर्यात् ; पुण्यप्रकृतयस्तु बिशुद्धिप्रकर्षात् पीनविपाकाः कृता इति तद्विपाकमावत्यमेव तत्र' इति केनचिदुच्यते तत् तुच्छम् , रसघाताद् रसस्येव स्थितिघातात् स्थितेरप्युच्छेदप्रसङ्गात् । तथाविधस्थितौ च व्यवस्थितायां तथाविधरसः कस्य पाणिना पिधेयः ? । अगिव च सर्वथा भवोपग्राहिपापकर्मरसघाते समुद्धातवैययम् । न स्खलु सत्कर्मसमीकरणायैव समुदघातः, सत्कर्मण एव वाधिक्यं तदेत्यत्र मानमस्तीति क्रिमुत्सूत्रविस्यन्दितेन । पराधातोदयेन च परेषां दुर्धर्षताद्यभिव्यङ्ग्यं स्वफलं क्रियत एव; परहननादिकं तु मोहकार्यमेव, इति कथं ततस्तदापादनम् ! । परे तूदीरणा विना प्रचुरपुद्गलोपकर्मरूप पापप्रकृति का दुःसप्रद उदय नहीं होता। पापात्मक प्रकृतियाँ मोडसापेक्ष होती है मतः मोह की घास हान पर रसघात हो जाना आवश्यक होता है। यदि ऐसा न माना भारगा तो पराघातनामक कर्म के उदय से कंवली में पर को आवात पहुँचाने की प्रवृत्ति की भी आपत्ति होगी। पापप्रकृतियों से पुण्यप्रकृतियों में अन्तर होता है क्योंकि उन के साथ विशुद्धि का प्रकर्ष होता है, इसलिए उन का विपक-उन का फलप्रद परिणाम परिपुष्ट होता है। अतः केवली में पुण्यप्रकृतियों के विधाक का प्राबल्य होता है। फलतः उन में सुखप्रद सातवेदनीय कमे का सुखप्रद उदय तो होता है। किन्तु असातवेदनीय कर्म का दुःखप्रद उदय नहीं होता।"-किन्तु यह कथन सारहीन है क्योंकि कंवली में रसवात से यदि रस का उच्छेद माना जायगा तो स्थितिघात से उन की स्थिति का भी उच्छेद प्रसक्त होगा और यदि स्थितिघात के साथ भी स्थिति मानी जायगी तो रसघात के साथ रस के अस्तित्व को किस के हाथ के नीचे छिपाया जा सकेगा। [समुद्घातक्रिया निष्फलत्वापति ] इस के अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि यदि भयोपग्राही पाप कर्म का पूर्णरूप से रसधात पहले ही हो जापगा तो केवली द्वारा समुदघात क्रिया का अनुष्ठान व्यर्थ होगा, क्योंकि इस बात में कोई प्रमाण नहीं हैं कि 'ममुरात की क्रिया मात्र सत्कर्मों की स्थिति के समीकरण के लिए ही होती है रस के समीकरण के लिए नहीं होती। अथवा समुदधात के समय सत्कर्मों का ही आधिक्य होता है। अतः सुन्न के तात्पर्य से परे कुछ कहना असंगत हैं। इस सन्दर्भ में यह कहना कि केवल्ली में असातवेदनीय कर्म के उदय से यदि दुःख का जन्म माना जायेगा तो पराघातनामक कर्म के उदय से घर को आघात पहुँचाने में केवली की प्रवृति की आपत्ति होगी-यह ठीक नहीं है क्योंकि पराधात का उदय होने पर उसका फल होता ही है, जिस की अभिव्यक्ति पर की दुर्घर्षता आदि से होती है। हाँ, केवली द्वारा पर का आवात नहीं होता, यह इसलिए कि वह पराघात के उदय का ही कार्य नहीं है किन्तु मोह का भी कार्य है और केवली में मोह नहीं होता। तो फिर केवल पराघात के उदय से पराघात में केवली की प्रवृत्ति का आपादान कैसे हो सकता है ? ___अन्य विद्वानों ने इस सन्दर्भ में यह कहा है कि केवली भगवान का असातवेदनीय कर्म जली हुई रस्सी के समान हो जाता है क्योंकि उन में 'उदीरणाकरण न होने के कारण प्रचुरकर्म पुद्गल उदयप्राप्त न हो सकने से उन का असातवेदनीय कर्म असहाय-निष्फल है
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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