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________________ २०६ ] [ शाखवा स्त० १०/६४ इत्थं च मानसपीडाऽप्रदत्वादेव भगवतोऽसातवेदनीयाद्याः प्रकृतयो नासुखदाः इत्युपदेशोऽज्ञानाऽरत्यादिजन्यदुःखविल्यात्, स्वोदयजन्यदुः स्वमात्र हेतुत्वेनात्पदातर्यदा त्तृत्वव्यपदेशवद् एतदुपपति, स्वविपाकप्रतिरोध एव तु निम्यरसलवदृष्टान्तानुपपत्तिरिति विभावनीयम् । न चेदृशं दुःखं कवला योग्यमिति शङ्कनीयम् आहारपर्याप्तिनामकर्मोदय- वेदनीयोदय ज्वलदनप्रतिरोधाऽयोगात् । दग्वरज्जुस्थानीयत्वमपि भगवत्यसातावेदनीयादिप्रकृतीनां न स्वकार्याऽक्षमत्वाभिप्रायेण शास्त्रे प्रतिपाद्यते, किन्तु क्षिप्रक्षेपण योग्यत्वाद्यभिप्रायेण, केवलिनि सातात्यन्तोदयस्यैवागमेऽभिधानात् ; साताऽसातयोचान्तर्मुहूर्त परिवर्तमानतया सातोदयवदसा सोदयस्यापि संभवात् । 'अन्तरानन्दभावे कथं दुःखोदयः ?" इति चेद ? यथा भावितात्मनां तपस्विनां परीपहादौ । यत्तु 'पापप्रकृतीनामपूर्वकरणे रसघातादेव केवलिनां न तथाविधोऽसातोदयः, मोहसापेक्ष ८ 7 यही मानना युक्तिसंगत है कि शीत और उष्ण परिषह का अनुभव होने पर भी उन्हें कैसे उस की पीडा नहीं होती है, उसीप्रकार भूख प्यास आदि लगने पर भी तपस्वियों को उस की कोई पीडा ( संक्लेश ) नहीं होती । इसप्रकार मानस पीडा का जनक न होने से ही यह कथन युक्तिसंगत होता है कि असावेदनीय आदि कर्म प्रकृतियाँ भगवान को असुखकर नहीं होती, क्योंकि उन में अज्ञानअरति आदि से होने वाले दुःख का अभाव हो जाता है । असातावेदनीय भगवान में स्वोदय मात्र से होने वाले दुःख का ही जनक होता है, फिर भी वह असुखकर होने के कथन की उपपत्ति ठीक उसीप्रकार होती है जिसप्रकार अल्पदाता को अदाता कहने की उपपत्ति होती है । ऐसा मानने पर दूध भरे घड़े में नीम के एक बूँद रस पड़ने के दृष्टान्त की अनुपपत्ति नहीं हो सकती। यह तभी होती जब भगवान में कर्मविपाक का पूर्णतया प्रतिरोध माना जाता | 'केवली में इसप्रकार का भी दुःख होना अयुक्त है' यह शंका नहीं की जा सकती क्योंकि आहार पर्याप्त नामक कर्म और वेदनीयकर्म के उदय से प्रज्वलित जदरानल का प्रतिरोध सम्भव न होने से भूख और उस के दुःख का होना अनिवार्य है । भगवान के अखात वेदनीय आदि कर्म प्रकृतियों में जो जली हुई रस्मी की समानता बतलायी गई है यह अपने कार्य के प्रति अक्षम होने के अभिप्राय से नहीं किन्तु तत्काल निवृत्त कर दिये जाने के योग्य होने के अभिप्राय से बतलायी गई है । केवली भगवान में सातवेदनीय कर्म का अत्यन्त उदय ही आगम में बतलाया है। किन्तु सात और असात वेदनीय कर्म प्रति मुहूर्त से परिवर्तित होते रहते हैं अतः सात वेदनीय के उदय के समान भगवान में असातमेदनीय का भी उदय सम्भव होता है । ' भीतर आनन्द के रहते बाहर दुःख का उदय कैसे हो सकता है ?' यह शंका उचित नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार आत्मभावना से सम्पन्न तपस्वियों को परीषद भादि में दुःख होता है उसी प्रकार केवली में आन्तर आनन्द के रहते भी क्रिश्चिद दुःख होने में कोई बाधा नहीं है [ पापप्रकृति का रसघात हो जाने से दुखाभावशंका का उत्तर ] कुछ विद्वानों का कहना है कि पापात्मक प्रकृतियों के फलजनन में रस सहकारी होता है । केवली में रसघात हो जाने से रस का अभाव हो जाता है। अत एष उन में असातावेदनीय
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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