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स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन ]
[२०२ अथ प्रशस्तविपरीतभावनाप्रकर्षशालित्वं दोषत्वम् , तच्च रागादाविव क्षुदादावस्यस्ति । दृश्यते हि वीतरागभावनातारतम्येन रानादमन्दमन्दतमादिभाव इति तवत्यन्त्योत्कर्षात् तदन्त्यन्तापकोऽपि भगवतामिति । एवमभोजनभावनातारतम्यात् सकृभोजनकदिन-पक्ष-मास-संवत्सराद्यन्तरितमोजमादिदर्शनात् सदत्यन्तोत्कर्षादात्यन्तिकक्षुद्भुक्त्याद्यपकर्षोऽपि तेषां युज्यत इति चेत् ? न, अशरीरभावनया शरीरानुग्रहोपघातनिमित्तकशरीरममत्व-मानसोपतापनिवृत्तिवदभोजनभावनया भोजनानुरागक्षुज्जनितसंक्लेशयोरेव निवृत्तेः स्वकारणोपनीतयोः क्षुद्-मोजनयोः शरीरवदाकर्मक्षयं भावनाशतेनापि निवर्तयितुमशक्यत्वात् ।
न हि विशुद्धभावनावतां तपस्विनां क्षुदेव न लगति, अपि तु क्षुस्कृतसंक्लेशस्तैर्निरुध्यते; अन्यथा शरीरकार्यादितत्कार्यानुपपत्तेः ; क्वचित् तदनुपलब्धेस्तथाविधमनोद्रव्याहरणोपाधिकत्वात्, पुद्गलरेव पुद्गलोपचयात् । न च तेषां क्षुत्-पिपासाऽभावे उभयथा तत्परीषहविजयो घटते, तस्मात् शीतादिसत्त्वेऽपि तत्संक्लेशाभाववत् क्षुदादिसत्त्वेऽपि तपस्विनां तत्संक्लेशाभाव इति युक्तमुत्पश्यामः |
[क्षुधा यह रागादि जैसा दोष होने की शंका-समाधान ] यदि यह कहा जाय कि-प्रशस्त से विपरीत यानी अप्रशस्त भाषमा का प्रकर्ष होना ही दोष है। दोष का यह लक्षण राग आदि के समान क्षुधा आदि में भी है। देखा जाता है कि वीतराग की भावना के तारतम्य से राग आदि में मन्द, मन्दतम आदि भाव होता है । इसलिए जैसे वीतराग की भावना के अत्यन्त उत्कर्ष से राग आदि का अत्यन्त अपकर्ष भगवान में होता है, उसी प्रकार, भोजन त्याग की भावना के तारतम्य से एक दिन में एक बार भोजन, फिर एक दिन के बाद भोजन, फिर क्रम से पक्ष, मास, संवत्सर आदि के व्यषधान से भोजन किया देखी जाती है। इसलिए भोजन त्याग की भावना के अत्यन्त उत्कर्ष से भगवान के क्षुधा और भोजन का अत्यन्त अपकर्ष होना भी युक्तिसंगत है' -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर से मुक्त होने की भावना से शरीर के प्रति शरीरमूलक ममता एवं शरीरोषघातमूलक मानससन्ताप की ही निवृत्ति जिसप्रकार होती है उसी प्रकार भोजनत्याग की भावना से केवल भोजनानुराग और क्षुधाजन्य क्लेश की ही निवृत्ति होती है। किन्तु क्षुधा और भोजन अपने कारणों से उपस्थित होते रहते हैं। सम्पूर्ण कर्मों का क्षय न होने तक शतशः भावना होने पर भी उन की निवृत्ति करना उसीप्रकार शक्य नहीं है जैसे शरीर से मुक्त होने की भावना से सम्पूर्ण कर्मों का क्षय न होने तक शरीर की निवृत्ति नहीं शक्य होती।
यह बात नहीं है कि विशुद्ध भावना करने वाले तपस्वियों को भूख ही नहीं लगती। सत्य यह है कि भूख उन भी लगती है किन्तु वे भूख से होने वाली पीडा को सहन कर लेते हैं क्योंकि यदि उन्द भूख ही न लगती तो उन के शरीर में भूखप्रेरित कृशता आदि कार्य भी न होता। कुछ तपस्वियों में यह अवश्य देखा जाता है कि उन का शरीर कृश नहीं होता पर इस से यह माम्यता उचित नहीं होगी कि उन्हें भूख ही नहीं लगती क्योंकि उन के शरीर का कृश न होना कृशताविरोधी मनोव्य ग्रहण करने के कारण हैं, क्योंकि पुद्गलों से ही शरीर के पुदगल का उपचय हो सकता है। यदि यह माना जाय कि तपस्थियों को भूख, प्यास नहीं लगती तो उन भूख, प्यास का विजयी काहना युक्किसंगत न होगा। इसलिए