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________________ २०४ ] [शावा० स्त१०/१५ wwwsupnew धातिवप्रसमात्, ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वीर्यान्यतरत्वेन साजात्यविवक्षणे तु तस्य तज्जातीयापनायकत्वस्याऽसिद्धत्वात् , सुखघटितान्यतरस्वस्य च याच्छिकत्वात् । नापि पञ्चमः, सर्वासामपि प्रकृतीनां सजातीयप्रकृत्यन्तस्कार्याधीनप्रकर्षशालिकार्यकत्वलक्षणस्य तस्याऽविशेषात्, इतरस्य च दुवैचत्वात् । नापि षष्ठः, अष्टानामपि कर्मणामष्टसिद्धगुणमतिपन्थिदोषजनकत्वाऽविशेषात् । अष्टादशसु दोषेषु क्षुपिपासयोर्गणनं च प्रभाचन्द्रादीनामभिनिवेशमूलन, घातिकर्मविपाकहदनिस्यन्दनभूतानामन्तरायादीनामेवाष्टादशानां दोषाणां प्रामाणिकः परिभाषगात् ; अन्यथा मनुजत्वादेरपि दोषवत्त्वप्रसवत्या भवतामदुष्टदेवस्य दुर्लभत्वापसेः । अवोचाम च "'दूसइ अन्वाबाहं इय जइ तुह सम्मओ तयं दोसो । मणुअत्तणं वि दोसो ता सिद्भत्तस्स दूसणओ ॥ १ ॥" [ अध्या० परीक्षा-७४ ] मानने पर अन्य सहभावियों में भी सहकारिता की आपत्ति होगी। हाँ, यदि वेदनीयकर्म में घातिकर्म का सादिक सहभाव होता तय उसे घातिकर्म के समान माना जाना सम्भव होता। किन्तु सार्वदिकसहभाव असिद्ध है। चौथा पक्ष भी ग्रहण योग्य नहीं है क्योंकि अष्ट कर्म के क्षय से उत्पन्न आठों ही आत्मगुण आत्मगुणत्व जाति से सजातीय हैं अतः उन के धात करने वाले आठों ही कर्म घाती हो जाएंगे, क्योंकि जिन का अपनयन घातीकर्म से होता है तस्मातीय गुण की अपनायकता अघाती चार कर्मों में भी प्रसक्त होती है। यदि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य इन में किसी एकरूप से सातात्य की विषक्षा करेंगे तो वेदनीयकर्म में शान दर्शन आदि के सजातीय का अपनायकत्व असिद्ध है। और यदि शान आदि के साथ सुख को भी जोडकर उन में से किसी का साजात्य ग्रहण करेंगे तो यह याइच्छिक केवल काल्पनिक होने से प्रमाण भूत न होगा। [ अंतिम तीन विकल्प का निरसन ] पाँचया पक्ष भी मानने योग्य नहीं है क्योंकि सभी प्रकृतियों में सजातीय अन्य प्रकृतियों के एकमूर्तिक-समानप्रकर्षशाली कार्य की जनकता विद्यमान है। अतः न केवल वेदनीय में अपितु सभी प्रतियों में घाति कर्म की तुल्यता की आपत्ति होगी। छठा पक्ष भी समीचीन नहीं है, क्योंकि आठों कर्मों में आठ सिद्धगुण के विरोधी दोष की जनता विद्यमान है। अत पब सभी कर्मों में दोषजनकता होने से बानि तुल्यता की आपत्ति होगी। अठारह दोषों में अधा और पिपासा की गणना जो प्रभाचन्द्र आदि ने की है यह दराग्रहमूलक है क्योंकि प्रामाणिक विद्वानों ने घातिकम के विपाकद से निकले हुए झरने के जैसे अन्तराय आदि अठारह दोषों को ही मान्यता दी है। यदि अन्तराय आदि ठारह दोषों से अतिरिक्त भी दोष माने जापर्ग तो मनुजत्य आदि में भी दोष की प्रसक्ति होने से अदुष्प देव का दौर्षभ्य हो जायगा क्योंकि अध्यात्ममतपरीक्षा में यह कहा जा चुका है कि “जो अव्याधाधता को दूषित करे-भङ्ग करेयदि उसी को दोष मानना अभीष्ट है तो मनुमत्य भी दोष है, क्योंकि यह भी सिद्भत्व का दृषक है। १. दूधयत्ययावामिति यदि तब सम्मतः तक; दोषः। मनुजस्वाप दोषस्तत् सिद्धत्वस्य दूषणतः ||१||
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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