________________
स्था. क. टीका-हिन्धी विधेसन ]
[ २०३ न क्लेशोःथानमिति वाच्यम् । तत्कर्मक्षप्रजन्यभावे तत्कर्मसत्ताया एव प्रतिबन्धकत्वात् अन्यथाऽतिप्रसनात्, उदयप्रभवेऽपि सुखेऽर्वागिव तदापि क्षायिकमावमपेक्ष्यानन्तत्वाऽविरोधात् ।।
पातितुल्यत्वं च वेदनीयस्य चिन्त्यम् । तथाहि-किंतत् : धातिरसवत्त्वं बा, तेंद्रसत्रिपाकप्रदर्शकत्वं बा, स्वैकार्यजनने क्वचित् तत्सहभृतत्वं बा, स्वापनेयसजातीयापनायकत्वं वा, स्वकार्यकमूर्तिककार्यत्वं या, दोषोत्पास, ॐय वा ! ..
नाद्यः, असिद्धेः । न द्वितीयः, अघातिकर्मान्तरमकृतीनामपि ताशवात् । उक्तं हि'अघातिन्यो हि प्रकृतयः सर्वदेशघातिनीभिः सह वेद्यमानास्तसविपाकं प्रदर्शयन्ति, न तु सर्वदा स्वरसविपाकदर्शनेऽपि ता अपेक्ष्यन्ते' इति । अत एव न तृतीयोऽपि, कादाचित्कस्य तत्सहभावस्याऽकिञ्चित्करत्वात् ; अन्यथाऽतिप्रसमात्, सार्वदिकस्य च तस्याऽसिद्धेः । नापि चतुर्थः, आत्मगुणत्वजास्याऽष्टकर्मक्षयजन्यानामष्टानामपि गुणानां साजात्यात्, तद्घातिनामष्टानामप्यविशेषेण
वेदनीय कर्म का विपाक केवली में मोहाभाव मे-घानीकर्म के विपाक के समान-प्रतिवद्ध दो जाता है। अतः सत्तागत वंदनीय कर्म में उस के फल का आत्यन्तिक अयोग होने से भगवान में क्षायिक सुख की उगपत्ति हो जाती है। अतः उस का विरोध किप चिना भगवान में क्लेश की उत्पत्ति नहीं हो सकती।' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जो भाय जिम कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है उस में उस कर्म की सत्ता ही प्रतिबन्धक होती है। ऐसा यदि न माना जाएगा तो उस कर्म के अभाव में भी उस कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाले भाव का किसी अन्य द्वारा प्रतिबन्ध होने की अतिमसक्ति होगी। अत: वेदनीय के विपाक को मोहाभाव से प्रतिबद्ध मानना उचित नहीं है। केवली होने के पूर्व कर्मादय से उत्पन्न सुख में क्षायिक भाव की अपेक्षा जिस प्रकार का आनन्य होता है उसीप्रकार फेवलीदशा में क्लेश का उदय होने पर भी क्षायिक भाग की अपेक्षा उस सुख के आनन्त्य होने में कोई विरोध नहीं है। वेदनीयकर्म में जो घातीकर्म की समानता बतलायी गई वह भी चिन्तनीय है क्योंकि उस का निर्वचन दुष्कर है। असे धातिकर्म की समानता के निम्न रूप हो सकते हैं
घातितुल्यता का अर्थ क्या है, 'घातिकर्म जैसे रसवान होना। श्वातिरस के विपाक का प्रदर्शक होना। अपने कार्य की उत्पत्ति में उस का सहभागी होना। "बातिकम के अपनेय के सजातीय का अपनायक होना । धातिकार्य के पकमूर्तिक कार्य का जनक होना। दोष का उत्पादक होना । अथवा उक्त सों से अतिरिक्त कोई अन्य रूप समानता का होना ?
[घाति तुल्यता के आध चार विकल्पों का निरसन ] इन में प्रथम सम्भव नहीं है क्योंकि वेदनीय में घातिकर्म के जैमा ही रम है यह बात असिद्ध है। तसरा भी असंगत है क्योंकि अघाती अन्य कर्मों की प्रतियां भी धाति रस के विधाक की प्रदर्शक होती है किन्तु घे घाति के समान नहीं मानी जाती, क्योंकि कहा गया है कि अघाती प्रकृतियाँ सर्य-देशघाती प्रकृतियों के साथ भुज्यमान होने पर उन के रस विपाक का प्रदर्शन करती है किन्तु अपने इस विपाक का प्रदर्शन करने में सर्वदा उन की अपेक्षा नहीं करती। तीसरा पक्ष भी स्वीकार योग्य नहीं है क्योंकि कभी धातीकर्म का सहा भाष हो जाना उन के कार्य की उत्पत्ति में अप्रयोजक है। यतः कदाचित्साभाषी को सहकारी