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[ शास्त्रबार्ता. स्त० १०६४ भगवतो नियतेः स्वभावादेब बा विलक्षणचेप्टोपपटिरिष्यते, तदेच्छाया अपि विलक्षणप्रवृत्तित्वावच्छिन्न एक हेतुत्वात् तदभावेऽपि नियतेः स्वभावादेब वा भगवतः प्रवृत्तिरिति बनतुं किमिति मूकायते भवान् ? । असमुदायवादे मिथ्यात्वं तु निर्लक्षणस्य भवत एवं, व एमभिनिदियो नाफोन स्वस्माकं पुरुषकारं नियत्या दिसापेक्षमाश्रयताम् । यदि च चेष्टाजातीयाऽपि प्रयत्नविशेषमतिपतेत् तदा धूमजातीयोऽपि कश्चिद् धूमध्वजमतिपतेदिति सभावनवा प्रसिद्धानुमानमपि भव्येत । तस्मादिच्छाभावेऽप्याहारपुदगलग्रहणे भगवतो ने क्षतिः । वस्तुतः शरीरतिछा पचिपा निरुपाधिपरदुःखप्रहाणेच्छेच रागकोदयात्रभवत्वेन राग एवं न, सामायिकवतां माध्यस्थ्यप्रवेच्छाया एवोचिनप्रवृत्ति तुत्वात् , ' उचित वृत्तिप्रधान निरभिष्वङ्गं चित्त सामायिकम् ' इति वचनादिति दिन ।
बच्चोक्तम् -'नच भगवति क्लेशो नाम .१९७.४यादि....तदयुक्तम् , अनन्तसुखस्य वेदनीयक्षयषभवस्याऽयोगिचरमसमयं तत्राऽसिद्ध स्तेन तदविरोधात् । नच-पातिवद् वेदनीयमिति तद्विपाकस्य तत्र मोहामावपतिबद्धत्वात् तकर्मण आत्यन्ति कफलाऽयोगादेव भगवति क्षायिकसुखोपपत्तेस्तदनुपमृद्य
यदि यह कहा जाय कि-'केवल नियति या स्वभाव से कार्य की उत्पत्ति मानना असमु. दायवादी होना है-एकमात्रकारणक कार्यवादी होना है। जनमत में तो नियति आदि पांच कारणों का समुदाय कारण माना जाता है। अतः इच्छा के अभाव में भी केवलनियति अथवा स्वभाव से भगवान की प्रवृत्ति मानने पर मिथ्यादृष्टित्व की आपत्ति होगी'-तो यह आपत्ति उद्भावनकर्ता को ही होगी क्योंकि वह निर्लक्षण है अर्थात् उस का कोई निश्चित सिद्धान्त नहीं हैं क्योंकि उसी ने भगवान में प्रयत्न न मान कर केवल नियति अथवा स्वभाव मात्र से चेष्टा होने की बात अभिनिवेशपूर्वक कही है। हमें सिद्वान्ती को आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि हम निर्याल आदि के साथ पुरुषकार-पुरुष प्रयन्न को भी कारण मानते हैं।
दुसरी बात यह है कि यदि प्रयत्न के शिना भी केवली की चेष्टा मानी जायेगी तो अग्नि के विनर कभी थूम होने की भी सम्भावना हो सकती है। फलतः धूमहेतुक अग्नि के प्रसिद्ध अनुमान का भी लोप हो जायगा। इसलिए इच्छा के अभाव में भी आहारपुद्गल के ग्रहण में भगवान की प्रवृत्ति मानने में कोई क्षति नहीं है।
सघ बात यह है कि केवली को अपने शरीर की स्थिति रखने की इच्छा दूसरों के दुःख दूर करने की नि:स्वार्थ इच्छा जैसी होती है जो गगकर्म के उदय से उत्पन्न न होने के कारण रागरूप नहीं है किन्तु यह सामायिकवान पुरुषों की माध्यस्थ्यमूलक इच्छा है, क्योंकि वही सम्पूर्ण उचित प्रवृत्ति का कारण हैं। जसा कि कहा गया है कि-सामायिक वह चतता है जो रागीर होती है और जिस में उचित प्रधृत्ति की प्रधानता होती है।
[केवली में क्लेश होने में कोई विरोध नहीं है] इस सन्दर्भ में जो यह बात कही गई कि 'अनन्त सुख के विरोध के कारण भगवान में दुखात्मक क्लेश नहीं हो सकता' तो यह टीक नहीं है क्योंकि अनन्तसुख वंदनीय कर्मों के संपूर्ण क्षय से उत्पन्न होता है। अतः अयोगी गुणस्थान के अंतिम समय तक अनन्त सुख की सिद्धि न होने से उस समय तक भगवान में क्लेश मानने पर असन्त सुख का विरोध नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि- 'वेदनीयकर्म घानीकर्म के समान है, इसलिए