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________________ स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ २०१ स्थाप्यौदयिकमावस्य स्वकार्याऽप्रतिरोधात्, केवलज्ञानादेस्तकार्यप्रतिवन्धकत्वे मोहादेस्तत्सहकारित्वे बा मानाभायात्; अन्यथा जिननामा-युष्ककर्मादिविषाकनिमित्तक्रियाया अपि सत्रानुपपत्तेः । न च परपरिणमनलक्षणक्रियायामज्ञानस्य हेतुत्वाऽज्ञानिनो भगवतस्तदनुपपत्तिः ; तदुक्तम्-- [प्रव० सारे ] ___'गेहदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं ।। पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सब्बं गिरवसेस ॥ १-३२ ॥" -इति वाच्यम् ; सत्यपि ज्ञान आत्मप्रदेशैः कर्मादानवद् योगप्रदेशैर्वहिरादानस्याप्युपपत्तेः । यदि च प्रयत्नसामान्यं प्रतीच्छाया हेतुत्वावधारणाद् न केवलिनः प्रवृत्तिरिप्यते, तदा चेात्वादच्छिन्नेऽपि विलक्षणप्रयत्नेन हेतुत्वात् तदभावे न केवलिनश्चेष्टाऽपि, इति जीवन्मुक्ति--परममुक्त्योरविशेषापातः । यदि च विलक्षणचेष्टात्वावच्छिन्न एव निलक्षणप्रयत्नस्य हेतुत्वात् तदभावेऽपि का उदय होने पर भगवान में भी योगप्रवृत्ति मानने में कोई विरोध नहीं है ! एवं क्षायिक तुल्य माना गया औयिकभार भी अपने कार्य का प्रतिरोधक नहीं होता। 'केवलशान आदि औदायिकभाव का प्रतिबन्धक है अथवा मोह आदि उस का सहकारी है। इस बात में कोई प्रमाण नहीं है । दूसरी बात यह है कि यदि यह बात मानी जाएगी तो भगवान जिन देव के मामकर्म और आयुषकर्म के विपाक से भी किसी क्रिया की उपपत्ति न होगी । यदि यह कहा माय शि." पर की परिणमन की क्रिया अशानमूलक होती है। अतः ज्ञानी भगवान में बह क्रिया नहीं हो सकती । जैसा कि “गेहदि णेब ण मुञ्चदि " इम गाया में कहा गया है कि 'ज्ञानसम्पन्न केवली किसी वस्तु को न ग्रहण करता है और न न्यागता है और न उस का परिणमन करता है किन्तु वह सभी देखता है, सम्पूर्ण वस्तुओं को जानता है -तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि शान होने पर भी केवली जैसे आत्मप्रदेशों से कर्मग्रहण करता है उसीप्रकार कायादि योगप्रदेशों से बाध अर्थ का भी ग्रहण कर मकार है । [ प्रयत्न के अभाव में चेष्टा के अभाव की आपत्ति ] __ यदि यह कहा जाय कि- प्रयत्न मात्र के प्रति इच्छा कारण होती है अत: इच्छा न होने से केवली की प्रवृत्ति नहीं हो सकती' -तो केवली में चेश के अभाव की भी आपत्ति होगी क्योंकि चेष्टा मात्र के प्रति विलक्षण प्रयन्न कारण होता है अतः केवली में प्रयत्न न होने पर चेष्टा भी नहीं हो सकती, जिस के फलस्वरूप जीवन्मुक्ति और फर्म मुक्ति में निर्विशेषता की आपत्ति होगी क्योंकि केवली में प्रयत्न न मानने में कर्मभूमि के समान जीवन्मुक्ति में भी केवली निश्चंट होगा। यदि यह कहा जाय कि-'यद्यपि चेष्टा के प्रति विलक्षण प्रयत्न कारण है अतः भगवान में मिटक्षण प्रयत्न न होने पर ततप्रयत्नमूलक विलक्षण चटा न होने पर भी, नियति अथवा स्वभाव से विलक्षण चेष्टा की उपपति हो सकती है तो यह कहने में भी आप क्यों मूक हो जाते है कि इच्छा भी प्रवृत्ति सामान्य का कारण नहीं है किन्तु विलक्षण प्रवृत्ति काही कारण है। अतः भगवान में इचछा न होने से इच्छा मूलक बिरक्षण प्रवृत्ति न होने पर भी नियति अथवा स्त्रभात्र से भगवान की प्रवृत्ति हो सकती हैं। ३ गृहणाति मैच न मुञ्चति न पर परिणमते कंबली भगवान । प्रेक्षते समन्ततः सो जानाति सवै निविशेषम् ।।१।।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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