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[ शास्त्रधा०ि स्त. १०/६४ वस्थायां तु क्षायिकं तत्, इति विशिष्टाहारमन्तरेणापि शरीरस्थितिनिबन्धनमिति वाच्यम् ; तत्सद्भावेऽपि शरीरस्थितिनिमित्ताने गोरादिका महताहारस्पानिरोधात । न चोपवेशनादिकमपि शरीरस्थित्यर्थ तत्राऽसिद्धम्, समुद्घातावस्थानन्तरकालं पीठफलकादिप्रत्यर्पणश्रुतेः, तद्ग्रहणमन्तरेण तत्प्रत्यर्पणस्याऽसंभवात् , तद्ग्रहणस्य च यथोक्तप्रयोजनमन्तरेणाभावात् ।
यस्त्वागमबाह्य उपवेशनादिकमपि केवलिनो घनगर्जनवर्षणादिवद् नियतिकृतकाल-देशनियममेव स्वीकुरुते न तु प्रायोगिकम् प्रवृत्ताविच्छाया हेतु वात् ; तथा च प्रवचनसारकृत्-१-४४) "ठाण-णिसेज-विहारा धम्मुवदसो अणिर्यादणा तेसि। अरहताणं काले मायाचारो ब्व इीणं ।।१।।'
पुण्यचिपाकस्तु तेषां सन्नपि या प्रवृत्ति प्रत्यकिश्चित्करः, औदायक्या अपि तायुक्त क्रिया या कार्याऽकार्यभृतयोर्बन्ध-मोक्षयारकारणका रणत्याभ्य क्षायिकरूपतया स्वीकारात ; तदाह
"goगफला अरहता तेसि किरिया पुणो हि ओइदगी ।
मोहादीनि विरहदा तम्हा सा खाइगि त्ति मदा ॥ प्रवचनसार १-४५ ॥ मोऽविस्पृश्यवादी, भगवतोऽपि नामक्रमोदयेन योगपत्यावरोधात् , क्षायिकत्वेनोपचरितकी प्रवृत्ति होती है, उनीप्रकार लक सिद्ध आहार में भी केवली की प्रवृति मानने में कोई विरोध नहीं है। केवली का उपवेशन आदि शरीर की स्थिति के लिए होता है, यह बात असिद्ध है।' यह कहना भी ठीक नहीं है क्योकि समुदधात अवस्था के बाद भगवान को पीठफलक आदि परत देने का शास्त्रीय उल्लख हैं और पीठफलक आदि परत देने का उल्लख तभी सम्भव हो सकता है, जब भगवान द्वारा उस का ग्रहण हो और यह ग्रहण भी तभी हो सकता है, जब शरीर स्थिति आदि उम का प्रयोजन हो।
[ केवलि की उपवेशनादि क्रिया सीर्फ नियतिकृत-पूर्वपक्ष ] आगमबाह्य-आगम के सिद्धान्तों के अनभित्रों का कहना है कि-फेषली की उपयशन आदि किया जो नियत देश और काल में होती है वह उसीप्रकार नियतिमूलक है जैसे नियत देश और काल में मेघों के गर्जन और वर्षण की क्रिया, न कि वह प्रयन्नमूलक है क्योंकि प्रवृत्ति में इच्छा कारण होती है और केवली में इच्छा का अभाव होता है। आगमबाह्यवादी के अनुसार यह बात प्रवचनसार के इम वचन से अनुमोदित है कि स्थिति, उपवेशन, बिहार और धर्मोपदेश आदि केवली की क्रिया ठीक उसीप्रकार निर्यातमूलक असे स्त्रियों का कपटमय आचार ।' केवली का पुण्यविपाक भी बाह्य प्रवृत्ति का साधक नहीं है। केवली की औदायिक किया भी कार्यभूनबम्ध का अकारण और अकार्यभूत अनश्वर मोक्ष का कारण होने से क्षायिक रूप है, अत: यह भी बाह्यप्रवृत्ति का मनक नहीं है जैसा कि “पुषण फला अईन्ता" इस गाथा में कहा गया है-अर्हन की पुण्यफलक औदयिकी क्रिया मोह आदि में रहित होती है, अतः यह क्षायिक मानी गयी है।
[आगमवाद्यवादी के मत का निरसन-उत्तरपक्ष ] आगमबाह्यवादी का यह कथन अविमृश्ययाद है-अधिवेकपूर्ण कथन है, क्योंकि नामकर्म । १ स्थान-निषद्या-विहारा धर्मोपदेशश्च नियत्या तेषाम् । अर्हतां काले मायाचार इव वीणाम् ॥१॥ २ पुण्यफला अर्हन्तस्तेषां क्रिया पुनहाँदयिकी । मोहादिभिः विरहिता नस्मात् सा आयिनीति मता ॥ १ ॥