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स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ।
अत्र ब्रमः-घातिकर्मक्षयापेक्षयाऽस्मदादिविजातीयत्वेन भगवति चतुनित्वाद्यनुपपत्तावपि भुक्तिनिमित्तकर्मक्षयापेक्षया विजातीयवासिद्धेर्न तत्र भुक्त्यनुपपत्तिः । न च मुक्तिसंपादकं कर्मेच्छा विना तदनिप्पादकम् , अनिच्छतामपि कर्मविपाककृतफलोपनिपातदर्शनात् । न च भुक्तिप्रवृत्ते रागनिमित्तकत्वाद् वीतरागे तदभावः, शरीरतिष्ठापयिषयोपवेशनादिप्रवृत्तेरिव भुक्तिप्रवृत्तेपि तत्राऽतथात्वात् । अनन्तवीर्यत्वं च तत्र विघ्नपरिपन्थि, न परमाहारमन्तरेणैव शरीरस्थितिसंपादकम् , अन्यथा च्छमस्थावस्थायाँ भगवत्यपरिमितवलश्रवणात् कर्मक्षयार्थमनशनादितपस्युद्यमक्तोऽस्य प्राणवृत्तिप्रत्ययं तस्यामवस्था याम शनायभ्यवहरणमसतं स्यात् । न च तदा क्षायोपशमिकं तस्य वीर्यम्, केवड्य-तो यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि औदारिक शरीर के सम्बन्ध की आत्यन्तिक स्थिति नहीं हो सकती । यतः असंख्येय काल के अनन्तर सम्पूर्ण पुद्गल परिणाम परिवर्तित हो जाता है, अत: अन्नादि आहार के बिना भी चिरतर काल तक स्थायी औदारिक शरीर की उत्तर काल में अशेष कर्मों का क्षय होने से निवृत्ति हो सकती है। [ पूर्व पक्ष समाप्न]
[ केबलि को कवलाहार का सम्भव न्यायमिद्ध-श्वेताम्बर उत्तरपक्ष ] उक्त के सन्दर्भ में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यों का यह कहना है कि पानी फर्मों के क्षय की अपेक्षा से भगवान हम जैसे जीर्षों से विजातीय है, इसलिए उन में चनुआनित्यसंसारीत्व-अकेवलीत्व आदि का अभाव हो सकता है । भोजन क्रिया के निमित्तभूत कर्मों के क्षय की अपेक्षा से भी भगवान हम जैसे जीवों से विजातीय है यह बात सिद्ध नहीं है, इसलिए उन में भोजन क्रिया का अभाव नहीं हो सकता । 'भोजन किया का सम्पादक कर्म भोजनेच्छा के बिना भोजनक्रिया का निष्पादन नहीं कर सकता' यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इच्छा न रहने पर भी कर्मविषाकजनित फल की प्राप्ति देखी जाती है। भोजन में प्रवृत्ति रागमूलक है, इसलिए वीतराग भगवान में भोजनप्रवृत्ति सम्भव नहीं है।' यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि शरीर को अवस्थित रखने की इच्छा के बिना भी जसे उपवेशनादि में राग न होने पर भी भगवान की प्रवृत्ति होती है, उसीप्रकार भोजन में राग न होने पर भी शरीर को अवस्थित रखने की इच्छा के बिना भोजन में भी भगवान की प्रवृत्ति हो सकती है। भगवान की अनन्तवीर्यता भी भोजनप्रवृत्ति में बाधक नहीं हो सकती, क्योंकि यह केवल उन में विनों की विरोधी है जिन से भगवान की उत्तरकालिक उपलब्धियों में बाधा सम्भावित हो, न कि वह आहार के बिना भी शरीर की स्थिति का सम्पादक है ।, क्योंकि यदि भगवान के शरीर की स्थिति आहार निरपेक्ष मानी जाएगी तो छद्मस्थ-संसारी अवस्था में कर्मक्षय के लिए अनशन आदि तप में तत्पर भगवान का प्राण धारण क्रिया में निमित्तभूत आहारादि का ग्रहण संगत न होगा, क्योंकि उस अवस्था में भी अपरिमित बल का होना प्रमाणसिद्ध है। फिर जसे केवली अयस्था में आहार के बिना भगवान के शरीर की स्थिति हो सकती है उसीप्रकार छवस्थ अवस्था में भी आहार के बिना प्राणक्रिया सम्पन्न हो सकती है।
यदि यह कहा जाय कि-'छमस्थ अवस्था में भगवान का वीर्य अयोपशम मूलक होता है और केवली अवस्था में झयमूलक होता है । अत एम केवली अवस्था का घीर्य विशिष्ट आहार के बिना भी शरीर की ससा का सम्पादक हो सकता है ' -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि क्षयमूलक अनन्त वीर्य के होने पर भी शरीरस्थिति के लिए उपवेशन मादि में जैसे केवली