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[ शाश्रवास. स्त: १०६४ प्रतिपन्नाः ; तत्सा त्रार्थाऽपरिज्ञानविजम्भितम् ; तत्र धकेन्द्रियादिभिः सह भगवतो निर्देशात्, निरन्तराहारोपदेशाच्च शरीरप्रायोन्यपुद्गलग्रहणस्याहारस्वेन विवक्षितत्वात्, अन्यथा समुद्धातावस्थायां क्षणत्रयमात्रमपहाय तेनाहारेण भगवतो निरन्तराहारत्वपसनात् । 'तत्र यथासंभवमाहारव्यवस्थितेः सह निर्देशेऽपि कवलाहार एव केवलिनो व्यवस्थापयितुं युक्तः, अन्यथा तच्छरीरस्थितेरभावप्रसादिति' (तु न) युक्तम् ; अस्मदादो प्रकृताहारमन्तरेणौदारिकशरीरस्थितेः प्रभूतकालमभावदर्शनात् केवलियपि तथाकल्पने तत्र सर्वज्ञताया अयनवसायप्रसन्नात्, दृष्टव्यतिक्रमकल्पनाऽयोगात् । श्रूयते च प्रकृता. हारमन्तरेणाप्यौदारिकशरीरथनिधि तत्काल मनीपतीनाम् । न च तदियत्तानियमप्रतिपादक प्रमाणमस्ति, इति निनिमित्तं सूत्रभेदकारणम् । यथान्यासं सूत्रार्थाश्रयण एव हि निरन्तराहारवचनमप्यनुल्लवितं भवेत् । न चातिशयदर्शनाद् निरवशेषदोषावरणहानेरत्यन्तशुद्धात्मस्वभावप्रतिपत्तिवत् प्रकृताहारविकलौदारिकशरीरस्थितिरप्यात्यन्तिकी संभवन्मुस्तेभगवतः सिध्येत्, इति " असरीरा जीवधणा '' इत्याद्यागमविरोधः प्रसज्येतेति शङ्कनीयम्, सयोगरयात्यन्तिकस्थितेरसंभवात्, असंख्येयकाला सर्वस्याः पुद्गलपरिणतेरन्यथाभवनात् , औदारिकस्य निराहारस्यापि चिरतरकालस्थायिन उत्तरकालमशेषकर्मक्षवाद विनिवृत्त्युपपतेरिति चेत् !
कारण है, क्योंकि मूत्र में एकेन्द्रिय आदि के साथ भगवान का निर्देश है और निरन्तर आहार ग्रहण करने का भी उल्लेख है। इसलिए आहार शरूद से शरीर के लिये योग्य पुद्गलों का ग्रहण ही विधक्षित है, न कि लोकप्रसिद्ध अन्न आदि का आहार । यदि अन्नादि के 'आहार' में सत्र का तात्पर्य माना जाएगा तो समदघात अवस्था में केवल तीन क्षण छोडकर परे समय उसी आहार से भगवान में निरन्तराहार होने की प्रसक्ति होगी।
यदि या कहा जाय कि 'सत्र में एकेन्द्रिय आदि के साथ यथासम्भव आहार की व्यवस्था का निर्देश होने पर भी फेवली का कयलाहारी होना ही मुत्र द्वारा विवक्षित है, क्योंकि उस के बिना केवली की शरीर की स्थिति नहीं हो सकती' -यह कहना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि अनादि आहार के बिना हम जैसे लोगों के औदारिक शरीर की स्थिति अधिक काल तक नहीं हो सकती केयल्ट इस कारण से यदि केथली के विषय में भी यही स्थिति मानी जाएगी तो हम लोगों के समान उस में सघज्ञता का निश्चय भी नहीं हो सकेगा क्योंकि एक कल्पना दृष्ट के अनुसार हो और दूसरी कल्पना दृष्ट के विपरीत हो यह युक्तिसंगत नहीं है 1 इस के अतिरिक्त यह भी प्रामाणिक रूप से विदित होता है कि अन्न आदि के आहार के बिना भी प्रथम तीर्थकर आदि के औदारिक शरीर की स्थिति चिरतर काल तक बनी रही थी । उस चिरतर काल की सीमा का कोई प्रमाण नहीं है इसलिए सत्रभेद करने में कोई निमित्त नहीं है, अर्थात् सूत्र की अपने अनुमत के अनुसार व्याख्या करने का कोई आधार नहीं है। सूत्र के यथाश्रुत अर्थ को स्वीकार करने पर ही भगवान को निरन्तराहार बताना उपपन्न हो सकता है।
यदि यह शंका की जाय कि भगवान में अतिशय होने के कारण जैसे समय दोपावरणों की हानि होने से अत्यन्त शुन आत्मस्वभावता मानी जाती हैं, उसीप्रकार अन्न आदि आहार के अभाव में भी मुक्ति के सम्भव की अवस्था में भगवान के औदारिक शरीर की आत्यन्तिक स्थिति मानने पर 'मोक्षमाण जीव अशरीर होते हैं ! आगम के इस कथन का विरोध होगा'