SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -*- *, *... ..- ~- ~ran,vvvve स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ १२७ भगवतोऽस्ति । न चा तीर्थप्रवर्तनवदिच्छाऽभावेऽपि स्वभावादेव भगवतो भुक्तिरिति कल्पयितुं युक्तम् , प्रकृताहारवैकल्य एवं नियतकालमाविशरीरस्थितिस्वभावकल्पनार्या दोषाभावात् । भावनाविशेषोत्पन्नसकलालेशोपरतव्यापारव्यवहारलक्षणतीर्थप्रवर्तनस्वभावयत् क्लेशोपशमनार्थ प्रकृताहारस्वभावकल्पनाया अन्याय्यस्यात् । न हि भगवति क्लेशो नाम, अनन्तसुखविरोधात् । ‘पयोभृते घटे निग्यरसलव इव बहुपुण्यप्राम्भारभते भगवत्यसातवेदनीयादिप्रकृतयो नासुखदाः' इत्युपदेशात् । दग्धरज्जुस्थानीयत्वाच्च तासाम् । न चातीन्द्रियस्य भगवतो देहगतं क्षुदादिदुःख तदुपशमसुख वा संभवति, आहारसंज्ञा-रुचिरूपयोनिस-रासनज्ञानयोस्तत्र हेतुत्वात् , विषयसंपर्कमात्रस्य तज्ज्ञानमात्रस्य वा व्यभिचारित्वात् । तदिदमुक्तम्-[प्रवचनसार १-२०] सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलनाणिस्स णस्थि देहगदं । जम्हा अदिदियत्तं जादं तम्हा हु तं णेयं ।। १ ।। औदारिकव्यपदेशस्तु भगवच्छरीरस्योदारत्वात्, न तु भुक्तेः । यत्वेकेन्द्रियादीनामयोगिपर्यन्तानामाहारिणां सूत्र उपदेशात् केवलिनां कवलाहारित्वं केचित् क्योंकि यह कल्पना करने में कोई दोष नहीं है कि आहार के अभाव में भी भगवान अपने स्वभाव से ही निश्चित काल तक अपना शरीर जीवित रख सकते हैं। भावनाविशेष से उत्पन्न, सम्पूर्ण क्लेशों से मुक्त प्रवृसि-आत्मक व्यवहार स्वरूप तीर्थप्रवर्तन, के स्वभाव की कल्पना न्यायसंमत है किन्तु फ्लश के उपशम के नि.प. भगवान में आहार ग्रहण के स्वभाव की कल्पना न्यायमंगत नहीं है। भगवान में क्लेश मानने पर “भगवान में अनन्त सुख होता है"-इस मान्यता का विरोध भी होगा। शास्त्र में बताया गया है कि दूध भरे घड़े में नीम के ग्स की एक छोटी बुद जैसे असुखकर नहीं होती उसी प्रकार अगण्य पुण्य राशि से भरे भगवान में अमातवेदनीय आदि प्रकृतियाँ भी असुखकर नहीं होती अपितु जली हुई रस्मी के ममान निग्र्थक होती है । अतीन्द्रिय भगवान में क्षुधा आदि से उत्पन्न दाख और क्षुधा आदि की निवृत्ति से उत्पन्न सुखरूप देहधर्म सम्भव भी नहीं है क्योकि आहार संझा और आहाररुचिस्वरूप मानस पर्व रासन शान उक्त सख और दखक हेत है जो भगवान में नहीं है। बिषयसम्पक मात्र अथवा विषय का ज्ञानमान तो उक्त सुख और दुःख का व्यभिचारी है। जैसे कि प्रवचनसार में सौख्यं वा पुण...' गाथा में कहा गया है कि सुख और दुरूप देहाभित धर्म केवली को नहीं होता क्योंकि केवली अतीन्द्रिय-इन्द्रिय मुक्त हो जाता है। अत: उसे सुगन और उन के साधनों का ज्ञान अतीन्द्रिय होता है। भगवान के देह को जो औवारिक कहा गया है, वह इसलिए नहीं कि भगवान भोजन ग्रहण करते हैं, किन्तु इसलिए कि उन का शरीर उदार-लोकोत्तर है। [सूत्र से भी केवली का कवलाहार असिद्ध ] कुछ लोगों में केवली को जो इस आधार पर कवलाहारी माना है कि सूत्र में एकेन्द्रिय से लेकर अयोगी पर्यन्त आहार ग्रहण करने वालों का उल्लेख है' यह सूत्रार्थ के अज्ञान के १. सौख्यं घा पुनर्दुःख केवलज्ञानिनो नास्ति देहरातम् । यस्मादतीन्द्रियत्वं जातं तस्मात खलु तज्जेयम् ।।१।।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy