________________
[ शाबधार्ताः स्त. १०/६४
ननु-युक्तमुक्तम् ‘सर्वज्ञेनाभिव्यक्तादागमाद् धर्माऽधर्मव्यवस्था' इति । कवलाहारित्वे त्वस्मदादिवत् सार्वश्यमेव नोपपद्यते, इति कथं सिताम्बराणां सर्वज्ञमूला व्यवस्था ?। न च च्छमस्थे भुजिक्रियादर्शनात् केवलिनि तद्विजातीये तत्कल्पना युक्ताः अन्यथा चतुानित्वाऽकेवलित्वसंसारित्यादयोऽपि तत्र स्युः । न च देहित्यभात्रं तस्य भुक्तिसंपादकम् , मैजुगसंपादककर्मसत्त्वेऽपि सुषुप्त्यादी वृषस्याभावेन मैथुनविरहवत् कैवल्ये हतमोहतया बुभुक्षाऽभावेन भुक्त्यनुपपत्तेः । एवं च तथा भूतशवस्या-ऽऽयुष्कर्मणोः सत्त्वेऽपि न क्षतिः । न च मोहाभावात् शरीरानुरागनिमित्तबुभुक्षाऽमावेऽपि शरीरं स्थापयितुमिच्छरभातीति वाच्यम् ; अनन्तवीर्यस्य भगवतः शरीरस्थितिमिच्छोः प्रकृताहारमन्तरेणापि तत्स्थापनसामर्थ्याऽविरोधात् । न च शरीरतिष्ठापयिषापि बुभुक्षादिवदिच्छारूपत्वाद्
[केवलज्ञानी का कवलाहार अमान्य-दिगम्बर पूर्वपक्ष ] श्वेताम्बर जनसम्प्रदाय के मान्य मर्यश के सम्बन्ध में दिगम्बरवादी कहते हैं कि-यह बात तो सत्य है कि धर्म अधर्म की व्यवस्था सर्वज्ञ प्रणीत आगम से होती है। किन्तु सर्वज्ञ को कवळाहारी मानना ममीचीन नहीं है, क्योंकि यदि वह भी हम लोगों के समान आहार ग्रहण करेगा तो हम लोगों के समान वह असर्वज्ञ ही होगा। अत: स्वताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार धर्म-अधर्म की व्यवस्था सबैशमूलक नहीं हो सकती क्योंकि वे सर्वज्ञ को आहारग्रहण की अपेक्षा मानते हैं, जो सर्वक्षता में बाधक है। दूसरी बात यह है कि भोजन क्रिया छमस्थ(-अरुपश) संसारी पुरुष में देखी जाती है। केवली सबंज्ञ, छमस्थ नहीं होता। अतः उस में भोजन किया की कल्पना करना युक्त नहीं है। और यदि छनस्थ न होने पर भी उस में भोजन क्रिया मानी जाएगी तो उस में मति आदि चार ज्ञान, अकेवलीत्व और संसारीत्व होने की भी कल्पना अपरिहार्य होगी। यदि यह कहा जाय कि 'वह देहधारी है, अत एव उस में भोजन किया मानना अनिवार्य है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जैसे मैथुनसम्पादक मोह कम के विद्यमान होने पर भी सुषुप्ति आदि के समय मैथुन की इच्छा न होने से मैथुन का अभाथ होता है उसी प्रकार कैवल्य अवस्था में मोह नए हो जाने से बुभुक्षा न होने के कारण भोजन क्रिया नहीं हो सकती। इसलिये भोजन की शक्ति और आयुष्य कम विद्यमान होने पर भी भोजन किया न मानने में कोई क्षति नहीं है।
यदि यह कहा जाय कि-कैवल्य अवस्था में मोह का अभाव होने से शरीर के प्रति राग से होने वाली भक्षा न होने पर भी शरीर को जीवित रखने की इच्छा में केवली की प्रवृत्ति होती है तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि सर्वज्ञ भगवान अन् अनन्तवीर्य से सम्पन्न है। अतः आहार के बिना भी उन में शरीर को जीवित रखने का सामर्थ्य मानने में कोई विरोध नहीं है। सच तो यह है कि शरीर को जीवित रखने की इच्छा भगवान को ठीक उसी प्रकार नहीं हो सकती जैसे उन को बुभुक्षा नहीं होती।
[स्वाभाविक आहारग्रहण की कल्पना अनुचित ] __ यदि यह कहा जाय कि जैसे तीर्थ प्रवर्तन की इच्छा न होने पर भी भगवान तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं उसी प्रकार भोजन की इच्छा अथवा शरीर को जीवित रखने की इच्छा न होने पर भी स्थभाववश भगवान आहारग्रहण कर सकते हैं'-तो यह भी ठीक नहीं है