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[शास्त्रवा िस्त. १०/६४.
नाप्यस्मदादिशरीरस्थितित्वम्, अस्मदादित्वस्याननुगतत्वात्, किन्तु विजातीयशरीरस्थितित्वम् ; तच्च वैजात्यं केवलिशरीरे नास्ति, मोहक्षयेण रुधिरादिधातुरहितस्य मूत्र-पुरीपादिमलाधायिकवलाहारानपेक्षस्य परमौदारिकशरीरस्यैब भावादिति चेत् ? न, केवलिशरीरस्य कवलाहारानपेक्षत्वसिद्धौ परमौदारिकत्वसिद्धिः, तत्सिद्धरै च कवलाहारानपेक्षत्वसिद्धिरित्यन्योन्याश्रयात् । न च मोहक्षयेण परमौदारिकत्वमप्युत्पादयितुं शक्यम्, भवोपष्टम्भक शरीरोपमर्दैन शरीरान्तरोपनहे भवान्तरप्रसङ्गात् । अवस्थितशरीरस्यातिशयश्च न रुधेरादिधातूपष्टधमनुप्यशरीरत्वजात्युच्छेदेन संभवति । न ह्यतिशयितोऽपि पद्मरागो मुक्तामणी भवति ।
____कथं चैवं पुद्गलविषाकियन्त्रर्षभनाराचसंहननप्रकृतिविपाकोदयस्सत्र स्यात् ! अस्थि-पुद्गलेप्वेव जीव के शरीर की स्थिति कवलाहार के विना भी होती है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि हम लोगों की शरीरस्थिति के लिए कबलाहार की अपेक्षा है क्योकि “हम लोगों" का कोई अनुगत ऐसा अर्थ नहीं है जिस के आधार पर यह बात कही जा सके । क्योंकि हम जैसे लोगों में विभिन्न प्रकार के जीवों का समावेश है जिन के शरीर के लिए कवलाहार की अपेक्षा होती है। किन्तु यही कहना उचित होगा कि कालाहार की अपेक्षा, विजातीय शरीर को होती है और उस शरीर का वैज्ञात्य केबली के शरीर में नहीं होता, केषली का शरीर परमौदारिक होता है । मोह का क्षय होने से उस शरीर में रुधिर आदि धातुओं का अस्तित्त्र नहीं होता। अतपय उस में मृत्र पुरीष आदि भल पैदा करने वाले कबलाहार की अपेक्षा नहीं होती।' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि केवली के शरीर में कवलाहार की अपेक्षा नहीं होती' यह बात सिद्ध हो जाने पर ही 'उस का शरीर परमादारिक होता है। यह बात सिद्ध होगी
पली का शरीर परमौवाधिक होता है' यह सिद्ध हो जाने पर ही उस को कवलाहार की अपेक्षा नहीं होती' यह बात सिल होगी। अत एवं उक्त कथन अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त है। मोह का क्षय हा जाने से केवली का शरीर परमौदारिक हो जाने की उपपत्ति भी नहीं की जा सकती, क्योंकि वर्तमान भव के निमित्तभूत शरीर को निमित्त मान कर ही विजातीय शरीर का अभ्युपगम किया जा सकता है और ऐसा होने पर केवली में भवान्तर की आपत्ति होगी जब कि केवली का भवान्तर सिद्धान्तविरुद्ध है। केवली के शरीर में अन्य शरीरों की अपेक्षा अतिशय की उपपत्ति भी इस रूप में मान्य नहीं हो सकती कि रुधिर आदि धातुओं से निर्मित होने वाले मनुष्यशरीर की जाति का इस में उच्छेद हो जाता है', क्योंकि पंसा नहीं होता कि पनरागमणि पर्याप्त अतिशय से सम्पन्न होने पर भी अपनी सहज जाति पद्मरागत्य को छोड़कर मुक्कामणि हो जाय । इसीलिये यह कहना कथमपि संगत नहीं हो सकता कि केवली का शरीर छमस्थ मनुष्य के शरीर की अपेक्षा अतिशय युक्त होने से मनुष्य शरीर के सहज स्वभाव को छोड़ देता हो । अत एष मनुष्य शरीर के लिए अपेक्षित कवलाहार की अपेक्षा केवलिशरीर में नहीं होने की बात असंगत है।
[ संघयण नामकर्म का विपाकोदय कैसे घटेगा ? ] __यह भी सातव्य है कि केवली के शरीर को यदि मनुष्य के रुधिरादि घरित शरीर से सर्वथा विजासीय माना जाएगा तो उस में 'वन ऋषभ नारायसंघयण' नामक पुगहविपाकी