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-स्या. क. टीका-हिन्दी विवेश्वन ]
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तस्याचिपाकदर्शनात् 'सहयण भट्टणचओ " कर्मग्रन्थे १-३८] इति वचनात् । न चास्थि पुद्गलेषु दृढतररचना विशेष एव तत्प्रकृतिजन्य इति नियमो, न तु तेष्वेवेति वाच्यम्, दृढावयवशरीराणां देवानामपि तत्प्रसङ्गात् । किञ्च, मोहक्षयस्य तत्कार्यराग-द्वेषविलयद्वारा ज्ञानोत्पादकत्वमेव, न तु शरीरातिशायकत्वम्, नामकर्मातिशयादेव जात्यनुच्छेदेन प्रशस्त संहननादिरूपशरीरातिशयोपपत्तेः । तथा चागमः – [आ. नि. ५७१]
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'संवयण - रूव - संठाण - वष्ण- गइ - सत-सार- उसासा । एमाइगुत्तराई हवंति णामोदया तस्स ॥ १ ॥ "
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न च नामातिशयस्य संहननाद्यतिशायकवज्जा ठरानलनाशकत्वमपि क्वचिदुक्तं युक्तं वा, तत्कारणीभूत तथा विधतैजस शरीरविघटनप्रसङ्गात् लब्धीनां कारणघटन - विघटनद्वारे कार्यघटन - विघटनयोस्तत्रत्वात् ।
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नामकर्म की प्रकृति का विशकोदय कैसे सम्भय होगा, क्योंकि इस प्रकृति का विपाक अस्थिपुद्गलों में ही होता है, जैसा कि 'संध्यणमट्टिषिचओ-संघयण यानी हड्डीयों का बंधारण' इस वचन द्वारा विदित है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि - " अस्थिपुदुमलों में जो विशेषप्रकार की वृढ रचना होती हैं वही इस प्रकृति से जन्य होती है यह नियम है, न कि यह नियम कि अस्थिमुगलों में ही इस कर्मप्रकृति का दृढ रचना के रूप में विपाक होता है: " क्योंकि ऐसा मानने पर देवताओं में भी उक्तमकार के प्रकृतिविपाक की आपत्ति होगी क्योंकि उन के शरीर के अवयव भी हढ होते I
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जो यह बात कही गयी कि केवली के मोह का क्षय हो जाने से उन का शरीर छद्मस्थ के शरीर की अपेक्षा अतिशययुक्त हो जाता है । ' यह ठीक नहीं है क्योंकि मोह का क्षय मोह के कार्य राग और क्षेत्र की निवृत्ति के द्वारा ज्ञान का ही उत्पादक होता है, न कि शरीर के अतिशय का भी सम्पादक होता है । अत्रयवों के उत्तम गठनरूप शरीर के अतिशय की सिद्धि नामकर्म के अतिशय से ही सम्पन्न होती है। उस के लिए पूर्व शरीर के जाति का उच्छेद आवश्यक नहीं होता । जैसा कि आवश्यक नियुक्ति में
संघयण रूप संठा-वण- गइ सत्त-सार ऊसासा । पमाइणुत्तराई हथेति णामोदया तस्स ॥
इस गाथा में स्पष्ट कहा गया है कि संहनन, रूप संस्थान, वर्ण, गति, सत्य, सार, श्वासोच्छवास आदि शरीर धर्म, नामकर्म के प्रभाव से केवलि के लोकोत्तर होते हैं। नामकर्म का अतिशय मंहनन आदि के अतिशय का सम्पादक होता है यह बात जैसे कही गयी है। उसप्रकार यह बात कहीं नहीं कही गयी कि नामकर्म के अतिशय से जठगनल का नाश भी होता है। और यह युक्तिसंगत भी नहीं है क्योंकि यदि जठरानल का नाश माना जाएगा तो उस के हेतुभूत तैजस शरीर के भी विघटन की आपत्ति होगी। अतः यह सर्वमान्य है कि लब्धि का अतिशय कारण के संघटन और विघटन सम्पन्न करके ही कार्य के संघटन और विघटन का सम्पादक होता है ।
- १. संहननमस्थिनिचयः ।
२. संहनन रूप - संस्थान-गति सत्य सारोच्छ पासा: । एवमाद्यनुत्तराणि भवन्ति नामोदयात् तस्य ॥ १ ॥