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________________ स्या, क. टीका-हिन्दीषियन ) [ ३१ न च सर्वासां मायाप्रकर्षनियमोऽपि, स्वभावसिद्धाया अपि तस्या भूयसीप विपरीतपरिणामेन निवृत्तिदर्शनात । एतेन 'स्त्रियो न चारित्रपरिणामवत्यः, पुरुषापेक्षया तीवकामवत्वात् , नपुंसकवत्' इत्यपास्तम् , तीब्रस्यापि कामस्य भूयसीपु तासु श्रुतपरिशीलन-साधूपासनादिप्रसूतविपरीतपरिणामेन निवृत्तिदर्शनात् । न च मिथ्यात्वसहायेन महापापेन स्त्रीत्वस्य निर्वर्तनाद न त्रीशरीवर्तिन आत्मनश्चारित्रप्राप्तिरिति शनीयम् , सम्यक्त्वप्रतिपत्त्यैव मिथ्यात्वा दीनां क्षयादिसम्भवात् ; आस्त्रीशरीरं तदनुवृत्तौ तस्याः सम्यक्त्वादेरप्यपलापप्रसन्नात् । उक्तं च 'सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकाल एवान्तः(कोटा)कोटस्थितिकानां सर्वकर्मणां भावेन मिथ्यात्वमोहनीयादीनां क्षयादिसंभवान' इति । न च कक्षा-स्तनादिदेदोष संसजनाबशुद्धः प्राणातिपातबहुलत्वाद् न तासां चारित्रमिति वाच्यम् ; शुद्धशरीराया अपि भूयस्या दर्शनात् , प्राणातिपातपरिणामाभावात् । यदि च वीणां चारित्रं न स्यात् तदा ‘साधुः, साधी, श्रावकः, श्राविका च' इति चतुर्वर्णसंघव्यवस्थोरसीदेत् । उतने मात्र से जैसे वे चारित्रहीन नहीं होते उसी प्रकार म्रियां भी माया होने पर भी चाग्निवती हो सकती हैं। इसके उपर यदि यह कहा जाय कि 'नारद आदि की माया तो मज्वलनीकपा यरूप होती है, अतः उससे चारित्र का विघात नहीं होता । तो यह बात सयमसम्पमा खी के सम्बन्ध में भी क्यों न मानी जाय कि उनकी माया भी मम्बलनीरूप होने से चारित्र का घातक नहीं होती । यसरी बात यह है कि सब स्त्रियों में माया की बहुलता होने का नियम भी नहीं है। क्योंकि माया का स्वभाव सिद्ध होने पर भी बहुत मी त्रियों में विपरीत परिणाम (मायाविरोधी परिणाम) द्वाग उसकी निवृत्ति भी देखी जाती है । इस प्रसङ्ग में यह अनुमान भी कि "खियां चारित्र परिणाम से शून्य होती हैं क्योंकि पुरुष की अपेक्षा के प्रबल कामाग्निबाली होती हैं, जैसे कि प्रबल कामाग्निबाले नपुंसक' निरस्त हो जाता है। क्योंकि काम के तीन होने पर भी बहुत सी स्त्रियों में श्रुतपरिशीलन और साधुसंतों की उपासना आदि से उत्पन्न विरोधी परिणाम द्वाग उसकी निवृत्ति देखी जाती है । यह भी शङ्का कि 'मिथ्यात्व सहकृत महापाप से स्त्रीत्व की प्राप्ति होती है, अत: स्त्री शरीर में विद्यमान आत्मा में चारिश की उत्पत्ति नहीं हो सकती' चित नहीं है । क्योंकि मभ्यक्त्व की प्रतिपसि से मिथ्यात्त्र आदि का क्षय हो सकता है, अतः स्त्री शरीर रहने तक मिथ्यात्व क्री अनुवृत्ति मानी जायगी तो स्त्री के सम्यक्त्व आदि का भी अपलाप हो जायगा । कहा भी गया है कि-मिश्यात्य मोहनीय आदि जितने भी कर्म हैं वे सम्पयत्व प्राप्तिकाल में ही अन्त: कोटा कोटी स्थिति वाले हो जाते हैं। उन सभी कर्मों की अधिक स्थिति का सम्यक्त्व प्रतिपत्तिमूलक परिणाम से भय आदि होता है। यह भी कहना कि--स्त्रियों के कक्षा कटि, काँख, स्तन आदि स्थानों में जीयमसति आदि अशुद्धि होने से अनेक कृमिकीट आदि के बहुल प्राणघात होने से स्त्रियों में चारित्र की उपपत्ति नहीं हो सकती- ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसी भी बहुत स्त्रियां होती हैं जिनका शरीर शुद्ध होता है, जिनमें किसी भी जीय का प्राणघात आदि परिणाम नहीं होता । दुसरी बात यह है कि यदि स्त्रियों में चारित्र न होगा तो साधु, साधी, नायक तथा प्राविका इन चार वर्णों के संघ की घ्यवस्था भी उम्सन्न यानी नष्ट हो जायगी ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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