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[ शात्रवार्ता० स्त० ११/५४
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चित्तपरिणतेः स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धत्वात् अन्यैश्चानुमानाद् न तत्सिद्धिः इति चेत् ! ननु सा स्त्रियां तथैव किं नावसीयते । अथ 'तासां भगवता नैर्ब्रन्ययस्यानभिधानाद् न तत्प्राप्तिः । ' असदेतत्, तासां तस्य भगवता 'णो कम्पदि णिस्स ग्गिंथीए वा अभिन्नतालपलंबे परिगाहित्तए, ' इत्याद्यागमेन बहुशः प्रतिपादनात् अयोग्यायाः प्रवज्याप्रतिषेधस्य विशेषाभ्यनुज्ञापरत्वाच्च । अथ सलज्जतया तासां चारित्रमूलमचेलत्वं न संभवति, अपावृतानां तासां तिरचीनामिव पुरुषैरभिभवनीयत्वात्, "नो कम्पइ णिगंथीए अचेलाए होत " इति भगवदागमेनापि निषिद्धमेव नाम्यम्, इति न तासां चारित्रसंभव इति चेत् ? न, नाम्यं हि न चारित्राङ्गम्, लज्जारूपसंयमविघातित्वात् । न चरणधरणेन परिग्रहः तस्य मूर्च्छारूपत्वादिति प्रपञ्चितत्वादिति न किञ्चिदेतत् ।
न च (? ननु) स्त्रीणां स्वभावत एव मायाप्रकर्षवत्त्वमुज्जृम्भतेः न च तत्रकर्षे निष्कपायपरिणामरूपं चारित्रमुज्जीवतीति चेत् ? न, चरमशरीरिणामपि नारदादीनां नायादिप्रकर्षवत्त्वश्रवणात् । ' तेषां संज्वलनी माया न चारित्रविरोधिनी 'ति चेत् ? संयतीनामपि तादृश्येव सा कि न तथा । यदि यह कहा जाय कि पुरुष में पुरुषत्व में चारिशभाव की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि उसमे कलावययोग की निवृत्तिरूप वित्तपरिणाम होता है, जो उसे स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ज्ञात होता है। और अन्य पुरुषों को भी अनुमान द्वारा उसका ज्ञान होता है तो इस पर यह कहा जा सकता है कि यही यात स्त्रियों के सम्बन्ध में भी क्यों न मानी जाय ? यदि यह कहा जाय कि भगवान ने स्त्रियों के निर्ग्रन्थ होने की बात नहीं कही है इसलिए उनमें उत प्रकार की चित्तपरिणति एवं चारित्र की प्राप्ति नहीं होती तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि भगवान ने "णां कम्पदि णिग्गंथस्स" इत्यादि आगम कि जिसका अर्थ है- 'निर्ग्रन्थ पुरुष अथवा निर्वन्धी स्त्री के लिए अभिन्न तालप्रत्रों का ग्रहण अकल्प्य है उससे अनेकशः स्त्रीयों में निर्ग्रन्थता का प्रतिपादन किया गया है। तथा अयोग्य स्त्री को जो प्रवज्या ( संन्यास ) का निषेध किया गया है इसका तात्पर्य विशेष स्त्री के लिए उसकी स्वीकृति में हैं । यदि यह कहा जाय कि स्त्रियांत होती हैं अतः उनमें निर्वस्त्र होने का चारित्र सम्भव नहीं हैं, क्योंकि उनके वस्त्रहीन होने पर स्त्री जाति के पशु, पक्षी आदि के समान पुरुषों द्वारा उनका अवमान हा सकता है। भगवान ने भी निर्ग्रन्थी की वस्त्रहीनता सम्भव नहीं है एतदर्थ आगम से उनकी नग्नता का निषेध किया है. अतः उनमें चारित्र सम्भव नहीं है" तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि लज्जारूप संयम का विरोधी होने से 'नग्नता' मात्र ही नहीं है । यह भी कहना उचित नहीं है कि 'वस्त्रादिरूप धर्मोपकरण को धारण करने से लज्जा का निर्वाह करने पर भी परिग्रहदोष होगा क्योंकि परिग्रह मूर्च्छारूप होने से उसके द्वारा उक्त आपत्ति नहीं हो सकती, यह पहले सिद्ध किया गया है। अतएव स्त्री की निर्ग्रन्थता के विरोध में जो कुछ कहा गया है वह 'कुछ नहीं' के बराबर है ।
[ मायाबहुलता के कारण सकल स्त्री में मुक्तिनिषेध अनुचित ]
यदि यह कहा जाय कि स्थियों में स्वभावतः माया का बाहुल्य होता है और मायाबाहुल्य के रहते उनमें निष्कषायपरिणाम रूप चारित्र नहीं हो सकता' - यह ठीक नहीं है । क्योंकि नारद आदि अन्तिमदेद्दधारियों में भी माया आदि की बहुलता सुनी जाती है किन्तु