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________________ स्था. क. टीका-हिन्दीविधेयन ] किच्च, विशिष्टपूर्वाध्ययनानधिकारोऽपि तासां कुतः सिद्धः । 'सवैज्ञप्रगीतादागमादिति चेत् ? तत एव मुक्तिभावत्वस्यापि तासां सिद्धिरस्तु । न हि 'एकवाक्यतया व्यवस्थितो दृष्टेष्टादिपु बाधामननुभवन्नाप्तागमः क्वचित् प्रमाणं क्वचिद् ने इत्यभ्युपगन्तुं शक्यं प्रेक्षावता । वस्तुतोऽशतः सिद्भसाधनमध्यबाधितविशेषान्तरोपस्थित न दोषः, अन्यथांशतस्त्बायोगात् । न चात्राऽप्राप्ताऽविकल. चारित्रातिरिक्तं मुक्त्यमाजनं विशेषान्तरमुपतिष्ठते येन तद् न दोषः स्यादिति न किश्चिदेतत् । इत्थं च विवादास्पदीभूतत्रोणां पक्षत्वेऽपि न निर्वाहः, विवादास्पदीभूतत्येनातिरिक्त विशेपपरिग्रहाऽयोगात् । एतेन 'न्यूनत्वं पुरुषदोषो न तु वस्तुदोषः, न चैतावतव वादिपराजयात् कथापर्यवसानम् , तत्वनिर्णिनीषायामदोषात्' इत्युक्तावपि न क्षतिः । अथ चारित्राभायादेव मीणां न मुक्तिः । नन्वसावपि तासां कुतः सिद्धः १ । 'स्त्रीत्वादिति चेत्, नन्वेवं पुरुषत्वात् पुरुषस्यापि तदभावः किं न सिध्येत् । । अथ पुरुषे सकलसावद्ययोगनिवृतिरूप साथ ही यह भी प्रप्रव्य है कि स्त्रीयों का पूर्वाध्ययन में अधिकार नहीं हैं, यह किस प्रमाण से सिद्ध हाता है ? यदि सर्वज्ञ प्रणीत आगम से इसकी सिद्धि मानी जाय तो उनी से खीयों की मुक्तियोग्यता की भी सिद्धि हो सकती है। क्योंकि कोई भी बुद्धिमान मनुष्य यह नहीं स्वीकार कर सकता कि 'जिसमें पकवाक्यता है और देश आदि में जिसे कोई बाधा नहीं प्राप्त है यह आगम किमी विषय में प्रमाण होता है, और किमी में प्रमाण नहीं हो सकता।' सच यह है कि अंशतः सिमाधन भी होर उस स्थिति में नहीं होता जब सा कोई अन्य विशेष उपस्थित हो जिसमें साध्य अबाधित हो । क्योंकि उम स्थिति में भी यदि यह दोष होगा तो उसे अंशत: कहना ही असङ्गल होगा । प्रका में पेसा कोई विशेष उपस्थित नहीं है जो अविफल चारित्र न प्राप्त करने वालों में अतिरिक्त हो तथा मुक्ति के अयोग्य हो, जिससे अंशतः सिद्धिसाधन दोष न हो। अतः श्री को मुक्ति की अपात्रता सिद्ध करने का क्षपणक का प्रयास नहीं जैसा है। इस प्रकार विषादास्पद स्त्रियों को पक्ष करने पर भी मुक्ति की अयोग्यता की अनुमिति का निर्वाह नहीं हो सकता, क्योंकि विवादास्पदत्य रूप से अतिरिक्त विशेष का ग्रहण नहीं होता । न्यूनता पुरुष का दोष है, यस्तु दोष नहीं । अतः पुरूप की न्यूनता मात्र से वादी का पराजय होने पर कथा की समाप्ति नहीं हो जाती हैं । तरच निर्णय की इच्छा रहन पर न्यूनता दोष नहीं हैं। यह कहने पर भी खीमीक्षबादी की कोई हानि नहीं है, क्योंकि अब तक की कथा में स्त्री की मुक्ति की अयोग्यता के अनुमान में दोष बताया जा चुका है और कथा का आर्ग विस्तार होने पर उसमें भी दोष का प्रदर्शन किया जायगा । [स्त्रीत्व चारित्राभाव का प्रयोजक नहीं] यह भी नहीं कहा जा सकता कि 'मियों में चारित्र का अभाव होता है, क्योंकि स्त्रियों में चारित्राभाय होने में कोई प्रमाण नहीं है । 'स्त्रीत्व हेतु से चारित्रामात्र का अनुमान होगा यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि स्थीरव चारित्राभाय का अप्रयोजक है-स्त्रीत्य में चारित्राभाव की व्याक्ति का प्राहक तर्क नहीं है। यदि अप्रयोजक होने पर भी स्त्रीन्य से स्त्री में बारित्राभाष की सिद्धि की जाय तो पुरुषत्व से पुरुष में चारित्रभाव की सिद्धि क्यों न हो? ४०
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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