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स्वा. क. टीका - हिन्दी विवेचन ]
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वत्स्वत्यल्पविज्ञानेषु कृम्यादिषु वचनोत्कर्षानुपलम्भात् । यदि च प्रसज्यप्रतिषेधेनाऽ सर्वज्ञत्वं सर्वसत्याभाव उच्यते, तदा ज्ञानरहिते मृतशरीरे तस्योपलम्भः स्यात् न च कदाचनापि तत्तत्रोप लभ्यते, ज्ञानातिशयवत्स्वेव सकलशास्त्रव्याख्यातृषु वचनातिशयदर्शनात् । अतो ज्ञानप्रकर्षतारतम्यरूपज्ञानधर्मानुविधानदर्शनात् तत्कार्यता, धूमस्येवान्या दिसामग्रीगत सुरभिगन्धाद्यनुविधायिनोऽग्न्यादिजन्यता । इति यथोक्तप्रत्यक्षाऽनुपलम्भाभ्यामेतावद्व्यापारकज्ञानस्य स्पष्टताननुभवेनोहात्येन प्रमाणान्तरेण व्यवस्थाप्यत इति । यद् यत् निधिताऽशेषपूर्वकता विना नोपपन्नम् इत्यात्मन्येवासकृद् निश्चितम् इत्यविसंवादिवचनविशेषोऽ विसंवादिज्ञानवन्तं पुरुषविशेषं सर्वज्ञमर्थापयतीति सिद्धम् । तदुक्तम्
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" यद् यस्यैव गुणान् दोषान् नियमेनानुवर्तते ।
तन्त्रान्तरीयकं तत् स्यादतो ज्ञानोद्भव वचः ॥४१॥" इति ।
इंद्र चाभ्युपगम्योक्तम् वस्तुतोऽर्थापत्तिर्नानुमानादतिरिच्यते । तथाहि 'देवदत्स्य जीवित्वे
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उस के धर्म का अनुविधान नहीं देखा जाता क्योंकि किश्चित्य के तरतम भाव यूनाधिक्य से वचन में तरतमभाव न्यूनाधिक्य का उपलम्भ नहीं होता। जैसे कृमि आदि अत्यन्त अल्पशजीव में किञ्चित् का प्रकर्ष होने पर भी वचनप्रकर्ष का उपलम्भ नहीं होता। अतः वचनमें किञ्चदशत्व की जन्यता का निश्चय नहीं हो सकता। इसी प्रकार असर्वज्ञत्य शब्द में नञ् शब्द का प्रसज्यप्रतिषेध अर्थ मान कर असर्वशत्य का यदि सर्वज्ञत्वाभाव अर्थ किया जाय तो भी न असत्य की कार्यता नहीं सिद्ध हो सकती क्योंकि वचन द्वारा सर्वेशत्वाभाव के अन्वय का अनुविधान नहीं होता । जैसे- ज्ञानशृस्य मृतशरीर में संवंशत्याभाव होने पर भी वचन कर उपलम्भ नहीं होता किन्तु अतिशय ज्ञानवान् सकल शास्त्रों के व्याख्याता पुरुषों में ही वचनप्रकर्ष देखा जाता है। अतः ज्ञानप्रकर्ष के तारतम्यरूप ज्ञानधर्मका अनुविधान होने से बचन को ज्ञान का ही कार्य मानना उसी प्रकार उचित है-जैसे अग्नि आदि की सामग्री के ( चन्दनादि के) सुरभिगन्ध आदि का अनुविधान करने से धूम को अग्नि आदि से जन्य मानना उचित होता है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि यथावर्णित प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ से उक्त व्यापारपर्यन्त ज्ञान में स्पष्टता का अनुभव न होने से ऊह नामक अतिरिक्तप्रमाण से कार्यत्व का निश्रय होता है । जिस जिस वचनमें अविसंवाद निश्चित होता है वह भविसंवादिज्ञान विशेष के विना उपपन नहीं होता, यह नियम मनुष्य को अपने ही बचन के सम्बन्ध में अनेकदा निश्चित है | इसलिये अतीन्द्रिय पदार्थका प्रतिपादन करने वाला आगमरूप चन्चनविशेष अविसंवादिज्ञान से संपन्न पुरुष के बिना असम्पन्न होने से अर्थापत्तिके रूप में सर्वेश का साधक होता है । कहा भी गया है कि जो जिस के गुण और क्षेत्र का नियम से अनुवर्त्तन करता है वह उस के बिना नहीं होता इसलिये शान के गुणदोषका अनुवर्तन करने से वचन ज्ञान का कार्य होता है । '
[ अर्थापत्ति प्रमाण अनुमान से
अभिन्न ]
अब तक जो यह बात कही गई कि अर्थापत्ति से भी सर्वेश की सिद्धि हो सकती है वह परमत से अर्थापत्ति के प्रमाणान्तरत्व का अभ्युपगम कर के कही गई है। किन्तु सत्य यह है कि अर्थापत्ति, अनुमान से अतिरिक्त प्रमाण ही नहीं है। जैसे अर्थापत्तिप्रामाण्यवादी की यह