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________________ [शासवार्ता० स० १०१७ सति गृहेऽसत्त्वं यहिः सत्त्वं बिनाऽनुपपद्यमानं बहिःसत्त्वमर्थापयति' इति परेषामभिमानः । तत्र बहिःसत्वं विनाऽनुपपत्तिर्बहिःसत्त्वाभावव्याप्यकीभूताभावप्रतियोगित्वं व्यतिरेकच्याप्तिरेव । इति 'देवदत्तो बहिःसन् , जीवित्वे सति तात्, यो सम् िगाः इव इति व्यतिरेक्यनुमानमस्तु, 'बहिर्वृत्तिमद्वन् ' इति दृष्टान्तेन कदाचिदन्वय्येव वा । अथ गृहे. सनिकृष्टे जोविदेवदत्ताभावो गृहीतो देवदत्ते बहिःसत्त्वकल्पकः, न चेदमनुमानम् वैयधिकरण्यादिति चेत् ! न, विशिष्टेन सह गृहीतान्यथानुपपत्तिकेन लिङ्गेन व्यधिकरणेनापि विशिष्टानुमानोपपत्तेः । 'उदेष्यति शकटम् कृत्तिकोदयात् ' 'उपरि सविता, भूमेरालोकवत्वात् ' इत्यादौ तश दर्शनात् , पक्षधर्मताया अनुमितावतन्त्रत्वात् । इन्यते च परेणाप्येतत् "पित्रीश्च ब्राह्मणत्वेन पुत्रब्रामणताऽनुमा । सर्वलोकप्रसिद्धा न पक्षधर्ममपेक्षते ॥१॥" इत्यभिधानात् । “तुल्यवित्तिवेद्यतया तदुत्तरे मनसा वा गृहीतेन गृहनिष्ठाभावप्रतियोगित्वेन देवदरनिष्ठेना मान्यता है कि जीवित रहते हुए भी गृह में न होना बहिः सत्य के विना अनुपपन्न होने से अपने आश्रयभूत देवदत्त आदि के पहिःसस्व की अर्धापत्तिरूप प्रमा को उत्पन्न करता है, किन्तु यह मान्यता उचित नहीं है क्योंकि 'बहिःसत्व के विना अनुपपत्ति का अर्थ है यहिःसत्य के अभाष में अभाव होना । अर्थात् बहिः सत्वाभाव के व्यापक अभाष का प्रतियोगी होना । फिर यह तो व्यतिरेकल्याप्तिरूप है, अतः जीवित रहते हुये गृह में न होने से बहिःसत्य की अर्थापत्ति नहीं होती किन्तु अनुमान ही हो सकता है। और वह अनुमान व्यतिरेकी और अन्वयी दोनों प्रकार का हो सकता है । व्यतिरेकी अनुमान इस प्रकार होगा कि देवदत्त बाहर विद्यमान है क्योंकि जीवित होते हुये गृह में विद्यमान नहीं है। जो बाहर विद्यमान नहीं होता यह जीवित होते हये गृह में अविद्यमान नहीं होता जैसे ग्रहवर्ती यज्ञदत्त । अन्वयी अनुमान इस प्रकार होगा देवदत्त बाहर विद्यमान है, क्योंकि जीवित होते हुये गृह में अविद्यमान है. जो जीवित होते हुये गृह में अविद्यमान होता है वह बाहर विद्यमाम होता है जैसे बाहर में विद्यमान मैं अथया मेरे जैसा कोई अन्य व्यक्ति। यदि यह कहा जाय कि-'सन्निकृष्ट गृह में जीवित देवदस के अभाव का ग्रहण होने पर देवदत्त में बहिःसत्त्व का ज्ञान होता है। यह ज्ञान अर्थापत्ति रूप ही हो सकता है अनुमान रूप नहीं हो सकता, क्योंकि 'जीवित देवदत्त का अभाव' रूप साधन गृह में है और बहिः सस्वरूप साध्य देवदत्त में है, अतः साध्यसाधन में वैयधकरपय है और अनुमान साध्यसाधन में नियत सामानाधिकरण्य से ही होता है । तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जिस लिङ्ग में विशिष्ट साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति का ज्ञान होता है वह यदि व्यधिकरण भी हो तो उस से विशिष्ट माध्य का अनुमान होता है । जैसे-कृत्तिका नक्षत्र के उदय से शकटोदय का एवं भमिगत आलोक से अर्घ्य अन्तरिक्ष में स्थित सूर्य का अनुमान होता है। इसलिये पक्षधर्मता सर्वत्र की प्रयोझक नहीं होती। यह बात मीमांसा को भी माननी परती है। क्योंकि यह कहा गया है कि 'मातापिता के ग्रामणत्व से पत्र के ग्रामणत्यका अनमान सर्वसम्मत है, अतः अनुमान को नियम से पक्षधर्मता की अपेक्षा नहीं होती।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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