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स्या. क. टीका-हिन्दी विषेश्वन ]
नुमानाद् न वैयधिकरण्यम्, 'उदेष्यति भूमौ संनिहितसवितृकत्वं च साध्यते " इति तु यौगाः ।
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शकटम् ' इत्यादावप्येतत्काले संनिहित शकटोदयत्वम्
तच्चिन्त्यम् तथापि 'बहिर्देशो देवदत्तवान्' इत्यस्यानुपपत्तेः । यथोहमनुमितिव्यवस्थाया एव न्याय्यत्वात् विलक्षणानुमितौ विलक्षण शक्तिमत्त्वेन तत्तज्ज्ञानानां हेतुत्वादित्यन्यत्र विस्तरः । एतेन 'अस्त्वन्वयव्याप्तिज्ञानजन्याऽनुमितिः व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानजन्या त्वर्थापत्तिः अन्यथा परस्परव्यभिचारेण हेतुत्वस्याप्यसंभवात्' इति निरस्तम् प्रमाणद्वयसमाहारे परस्परविरोधित्व करूपने गौरवात्,
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[ पक्षधर्मता से ही अनुमानोदयवादी नैयायिकमत ]
नैयायिकों का इस सम्बन्ध में यह कहना है कि गृह में देवदत्त का अभाव और देवदत्त गृहनिष्ठ अभाव प्रतियोगित्य दोनों समान ज्ञान से देय है। अतः सन्निकृष्ट गृह में जीवित देवट्स के अभाव का ज्ञान होने पर जीवित देवदत्त में गृहनिष्ठ अभाव के प्रतियोगित्व का भी ज्ञान हो जाता है । यह भी ज्ञातव्य है कि यदि उक्त दोनों समानज्ञानवेध न हो तो भी सन्निकृष्टगृह में जीवित देवाभाव का ज्ञान होने पर देवदस में गृह निष्ठअभावप्रतियोगित्व का मानस ज्ञान हो सकता है । अत: देवदस में बहिःसत्य की सिद्धि देवदत्तनिष्ठ गृहाभाव से नहीं होती किन्तु गृहनिष्ठअभावप्रतियोगित्य से होती है । फलतः साध्य साधन में यधिकरण्य न होने से उसे अनुमान माना जा सकता है। इसी प्रकार कृत्तिकोदय से शकद्रोदय का भी अनुमान नहीं होता, किन्तु कृत्तिकोदय काल में कृत्तिकोदय हेतु से सन्निहित शकटादयत्व का अनुमान होता है । भूमिगत आलोक से ऊर्ध्वं अंतरिक्ष में सूर्य का अनुमान नहीं होता किन्तु भूमि में सन्निहित सूर्य का अनुमान होता है। एवं माता-पिता के ब्राह्मणत्व से पुत्र में आणत्य का अनुमान नहीं होता किन्तु ब्राह्मण मातापितृजन्यत्व से ब्राह्मणस्व का अनुमान होता है। अतः कहीं भी यधिकरण हेतु से साध्य का अनुमान नैयायिक को मान्य नहीं है ।
[ नैयायिकमत की चिन्तनीयता ]
किन्तु नैयायिकों का उक्त कथन चिन्तनीय है, क्योंकि उक्त अनुमानों की उपपत्ति उक रीति से यद्यपि साध्यसमानाधिकरण लिङ्ग से हो जाती है किन्तु गृह में जीवित देवदत्ताभाव के ज्ञान से तो 'बहिर्देशो देवदत्तवान् ' इस प्रकार बहिदेश में देवदस की अनुमिति होती ह उसकी उपपत्ति साध्यसमानाधिकरण लिङ्ग से नहीं हो सकती, क्योंकि गृहनिष्ठ अभाव प्रतियो गित्व अथवा गृह में जीवित देवदत्त का अभाव दोनों देवदत्तरूप साध्य के व्यधिकरण हैं। अतः जहाँ जिसप्रकार साध्य के समानाधिकरण अथवा व्यधिकरण हेतु से अनुमिति ऊह द्वारा संभव प्रतीत हो, यहाँ उसी प्रकार अनुमिति की व्यवस्था उचित है। विलक्षण हेतुओं से अनुमिति का उदय मानने पर व्यभिचार की शङ्का भी नहीं की जा सकती, क्योंकि विलक्षण अनुमिति में विलक्षण शक्तिस्वरूप से विभिन्न ज्ञानों को कारण मानने से व्यभिचार का परिहार हो सकता है। इस विषय का विस्तृत विचार अन्यत्र दृष्टव्य हैं ।
यदि यह कहा जाय कि - 'अन्वयव्याप्तिज्ञान से अनुमिति और व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान से अर्थापत्ति नामके अनुमितिभिन्न प्रभा की उत्पत्ति मानना आवश्यक है, क्योंकि यदि दोनों व्याप्तियों के ज्ञान से अनुमिति को उत्पत्ति मानी जायगी तो अभ्वयव्याप्ति ज्ञान से जन्य