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[ शास्त्रवार्ता स्त० १० / १७
अनुभूयमानानुमित्यपलापप्रसङ्गाच्च 'व्यतिरेकिणो वहन्यभावाभावत्वादिना अन्वयिनस्तु वहन्यादिनाऽनुमितिः इत्यन्ये । तत्र नियमश्चिन्त्यः । अथ व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानजन्यज्ञाने 'नानुमिनोमि किन्त्वर्थापयामि' इत्यनुव्यवसायात् पार्थक्यमेवास्या इति चेत् ? न, 'नानुभवामि किन्त्वनु मिनोमि इतिवदस्य पार्थक्या व्यवस्थापकत्वात् अन्यथा ऽन्वयव्यतिरेकिणः प्रामाणान्तरत्वप्रसङ्गात्, अनुभबापलापम्यान्यत्रापि तस्याटिंग |
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अनुमिति के प्रति व्यतिरेकव्याप्ति ज्ञान का एवं व्यतिरेकव्याप्ति ज्ञानजन्य अनुमिति के प्रति अन्वयव्याप्तिज्ञान का व्यभिचार होने से किसी भी व्याप्ति ज्ञान की अनुमिति का कारण मानना असंभव हो जायगा तो यह कथन भी निरस्त प्राय: है क्योंकि भन्थ्य व्याप्ति ज्ञान से अध्यवहित उत्तर में होनेवाली अनुमिति के प्रति अन्वयव्याविज्ञान को तथा व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान के अध्यवहित उत्तर होनेवाली अनुमिति में व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान को कारण मान लेने से उक्त व्यभिचार का परिहार हो जाता है । अत अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान को अनुमिति का कारण मानने में दोष नहीं है किन्तु विजातीय शानों को ही कारण मानने में दोष है । जैसे- जब अन्वयव्याप्तिज्ञानरूप अनुमान प्रमाण का और व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानरूप अर्थापत्ति प्रमाण का युगपत् सन्निधान होगा तब दोनों को परस्पर के कार्य का प्रतिबन्धक मानना पडेगा क्योंकि दों शानका समकालीनत्व मान्य न होने से उस दशा में अनुमिति और अर्थापत्ति नामक दो ज्ञानों की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती एवं अनुमितिस्त्र तथा अर्थापतित्य में सांक के भय से "अनुमिति - अर्थापत्ति' उभयात्मक एक शान की भी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती । फलत दोनों व्याप्तिज्ञानों को विलक्षण प्रमाण मानने के पक्ष में उक्त प्रतिबन्धकता की शून्यता के कारण गौरव होगा और उस दशा में अनुभवसिद्ध अनुमिति का अपलाप भी करना पडेगा ।
अन्य विद्वानों का कहना है कि व्यतिरेकी अनुमान से वहन्यभावाभावत्वरूप से हिन की अनुमिति होती है और अन्वयी अनुमान से बहिनस्वरूप से वहिन की अनुमिति होती है । अतः अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्ति दोनों के ज्ञान को अनुमिति का कारण मानने में व्यभिचार की प्रसक्ति नहीं हो सकती । किन्तु यहाँ नियम नियुक्तिक होने से चिन्तनीय है। अतः दोनों व्याप्ति ज्ञानों को अनुमिति का कारण मानने पर प्रसक्त होने वाले व्यभिचार का श्रारण इस व्यवस्था द्वारा ही करना उचित है कि अन्वयव्यामिशानाध्यवहितोत्तर अनुमिति में अन्वयव्याप्तिज्ञान कारण होता है और व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानाव्यवहितोत्तर अनुमिति में व्यतिरेकव्याप्ति ज्ञान कारण होता है ।
[ व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान स्वतन्त्र प्रमाण नहीं हैं ]
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यदि यह कहा जाय कि:- “व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान से उत्पन्न ज्ञान का न अनुमितमि किन्तु अर्थापयामि इस प्रकार अनुमिति भिन्नत्व और अर्थापत्तित्वरूप से अनुध्यवसाय होता है अतः अर्थापत्ति को अनुमिति से भिन्न मानना आवश्यक है" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे अन्वयव्याप्तिज्ञान से जन्य ज्ञान के 'नानुभवामि किन्तु अनुभिनोमि' इस अनुव्यवसाय से अनुमिति में अनुभव के पार्थक्य की सिद्धि नहीं होती उसी प्रकार उक्त अनुव्यवसाय से भी अर्थापति में अनुमिति के पार्थक्य की सिद्धि नहीं हो सकती । अन्यथा यदि अन्वयव्याप्तिज्ञानजन्य अनुमिति से व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानजन्यज्ञान को विलक्षण प्रमा मान कर व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान को अर्थापतिरूप अतिरिक