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स्या. क. टीका-हिन्दीत्रिवेमन
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अथ जीवद् गृहाभावग्रहसमय एव बहिःसत्त्वग्रहात् प्रमेयानुप्रवेशदोषाद् नेदमनुमानमिति चेत् ? न, असिद्धेः, धूमा( ? मसद् )भावग्रहोत्तरमेव दहनप्रतीतिबज्जीवतो गृहाभावग्रहोत्तरमेव बहिःसत्त्वप्रतीतेः । अथ 'देवदत्तः क्वचिदस्ति जीवित्वात् ' इत्यनुमानजन्यं क्वचित्त्वेन गृहविषयकं ज्ञानम् अनुपलब्धिजन्यं च 'गेहे नास्ति' इति ज्ञानम्, इत्यनयोर्विरोधज्ञानात् करणीभूतात् 'क्वचित् ' प्रमाण माना जायगा तो अन्वयध्याप्ति और श्यतिरेकच्याप्ति दोनों के समूहालम्वन ज्ञान में विलक्षण प्रमा को उत्पत्ति मान कर उसे और एक अतिरिक्त प्रमाण मानना होगा।
यदि यह कहा जाय कि-'उस ममूहालम्बन शान से जभ्य मान को अनमित्यादि से विलक्षण प्रमा मानने पर उस शान के अनुमितित्यरूप से अनुभव का अपलाप होगा'-ता इस दोष का उद्भावन उचित नहीं हो सकता क्योंकि भ्यतिरेकल्याप्तिमान को अर्धापत्ति प्रमाणचादी के मत में भी अनुभव का अपलाप होता है। जैसे अन्वयव्याप्तिज्ञान और व्यतिरेकव्यप्तिमान दोनों का युगपद् सन्निधान होने पर अनुमिति और अर्थापनि किमी की भी उत्पत्ति न मानने पर वहाँ होनेवाले अनुमित्यादि अनुभव का अपटाप होता है । एवं व्यतिरेकच्याप्तिमान मात्र में होनेघाले. शान में अनुमितित्व के अनुभव का भी अपलाप होता है ।
[हेतु और साध्य का ज्ञान क्रमिक होता हैं ] __ यदि कहा जाय कि-'गृह में जीवित देवदत्त के अभावज्ञान के समय ही देवकत में बतिःसत्त्व का शान हो जाता है । अत एव गृहनिष्ठजीवित देवदत्ताभाव भी बहिःसत्व के समान प्रमेय कोटी में प्रथिष्ट हो जाता है अतः उसे बहिः सत्त्व का प्रमापक अनुमान नहीं कहा जा मकता, क्योकि प्रमयकोटि में अप्रविष्ट ही प्रयापक होता है ।'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि गृह में जीवितदेवदत्ताभाष के ज्ञानकाल में ही बहिःसत्त्व के ज्ञान का होना अमित है । सत्य यह है कि जैसे बदिमत्तया प्रथमतः अनिर्णन धर्म में धृम के सद्भाव ज्ञान के बाद ही अग्नि की प्रतीति होती है उसी प्रकार गृह में जीवित देवदत्ताभाव के शान के अनन्तर ही देवदत्त में बहिःसत्त्व की प्रतीम होती है।
[विरोध ज्ञान अर्थापत्ति प्रमाणरूप नहीं है ] यदि यह कहा जाय कि-"अर्थापत्ति को अनुमान से गतार्थ नहीं किया जा सकता क्योंकि भापत्ति से पक सा कार्य होता है जो अनुमान से संभव नहीं है। जैसे: जीवित देवदत्त में गृहासत्व का ज्ञान होने पर यह अनुमान होता है कि देवदत्त किसी स्थान' में है क्योंकि जीवित है। यह अनुमान किसी स्थान' के रूप में गृह की भी विषय करने से देवदत्त में गृहास्तित्व को भी विषय करता है और गृह में देवदत्त की अनुपधि से उत्पन्न होनेवाला 'देवदत्तो गृहे नास्ति' देवदत्त गृह में नहीं है। यह ज्ञान देवरत्त में गृहास्तित्वाभाव को विषय करता है, अतः विरुद्धार्थविषयक होने से इन दोनों में विरोधमान होता है। इस विरोधज्ञानरूप कारण से 'देवदत्तः क्वचिवास्ति' इस अनुमाम में 'क्वचिद् रूप से गृहान्यविश्यकत्व की बुद्धि होती है जिस से उक्त ज्ञानों में भविरोध की उपपत्ति होती है । अत: उक्तशादों में जो विरोधमान होता है उसे अर्यापतिप्रमाण मानना और उस से उक्त अनुमान में जो गृहाग्यविषयकत्व की सिद्धि होती है उसे अर्थापत्ति प्रमा मानना; अथवा उक्त झानों में विरोध शान से होनेवाले उस अनुमान में गृहान्यविषयकस्व के ज्ञान को पर्यापत्ति प्रमाण मानना और उक्त शानों में अविरोध ज्ञान को अर्थापत्ति प्रमा मानना आवश्यक है।"-तो यह