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[ शाखार्त्ताः स्त० १० / १७
इत्यत्र गेहान्यविषयकत्वार्थापत्तिरविरोधापादिका जायत इति चेत् १ न, तयोर्ज्ञानयोरेककालीनत्वेनाऽविरोधात् । " क्वचिदिति ज्ञानं यदि गेहविषयकं स्याद् ' गेहे नास्ति ' इतिज्ञानं विरुद्धं स्यात् " इति विरोधापादनं च ' क्वचित्' इति न गेहविषयकम् ' गेहे नास्ति इत्यविरुद्धत्वादित्यनुमानोत्थापकमेव । ' गृहसत्त्व-गृहासत्त्वयोर्विरोधो गृहासत्त्ववहिः सत्त्वयोर्व्यासिद्योतकः एव ' इत्यन्ये । अथ सामान्यानुमितिसामय्या मे वै कविशेषवाघज्ञानकरणिका विशेषान्तरप्रकारिकाऽर्थापत्तिरिति चेत् ? न एवं सति पर्वते वहन्यनुमितेरपि जायमानायाः शिखरावच्छेदेन बाधज्ञानाद नितम्बाचच्छेदेन पर्यव स्वन्त्याः सामान्यप्रत्यक्षादेरप्येकविशेषवावाद् विशेषान्तर पर्यवसायिनोऽश्रपतित्वप्रसङ्गादिति दिग्||१७||
ठीक नहीं है क्योंकि उक्त अनुमानजन्यज्ञान और अनुपलब्धिजन्य उक्त ज्ञान, दोनों एक काल में उत्पन्न होते हैं । अतव उन में अविरोध स्वतःसिद्ध है । अत एव उस की उपपत्ति के लिये प्रमाणान्तर की कल्पना अनावश्यक है ।
विरोध अगय ही
दूसरी बात यह है कि उक्त होगा कि 'देवदत्तः कचिदस्ति यह ज्ञान यदि गंहविषयक होगा तो 'देवदत्त गृह में नहीं है' इस ज्ञान के साथ विरोध होगा तो यह विरोध आपादान इस अनुमान का ही उत्थापक होगा कि 'देवदत्तः क्वचिदस्ति' यह ज्ञान क्वचिदूरूप से गेहान्यविषयक है, गृहविषयक नहीं है । क्योंकि 'देवदत्तो गृहे नास्ति' इस ज्ञान से अविरुद्ध है । अतः उक्त शानों के विरोधज्ञान से अविरोधसाधिका अर्थापत्ति की सिद्धि नहीं हो सकती ।
अन्य विद्वानों का कहना है कि गृहसत्व और ग्रहासत्य का विरोध गृहासत्व में बहिः सत्व की व्याप्ति का द्योतक है। क्योंकि गृहानत्व में बहिःसत्त्व की व्यामि होने पर ही गृहासत्व में गृहस्व का विरोध हो सकता है ।
[ विशेषान्तरप्रकारक बुद्धि अर्थापत्तिरूप नहीं हैं ]
यदि यह कहा जाय कि - सामान्य अनुमिति की सामग्री में एक विशेष के बाधक ज्ञानरूप करण से जो विशेषान्तरप्रकारक वृद्धि होती है यह अर्थापत्ति है। जैसे: पर्वत में व्याय धूम का परामर्श होने पर यदि पर्वत में पर्वतीय बह्नि से इतरथद्धि का बाधशान होता है तो पर्वत में बहिन का पर्वतीय वानित्वरूप से पर्वत पर्वतीयवनमान इस प्रकार का ज्ञान होता है । इस शान को अनुमितिरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह धूमरूपहेतु के व्यापकतानवच्छेदक पर्वतीय व नित्वरूप से वह्नि को विश्य करता है । अत एव यह ज्ञान अर्थापत्तिप्रमारूप है और पर्वत में पर्वतीयवीतर का बाघशान अर्थापत्ति प्रमाण है और वहिनसामान्य का अनुमापक परामर्श उस का सहकारी है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर प्रसिद्ध अनुभिति और प्रसिद्ध प्रत्यक्ष में भी अर्थापतित्व की प्रसक्ति होगी। जैसे धूम से जो पर्वत में बहिन की अनुमिति होती है वह शिखरावच्छेदेन वहिन के बाधशान से नितम्बावच्छेदेन पहिनज्ञान में पर्यवसित होती है । एवं सन्निहित पर्वत में वह्निमददेश के साथ इन्द्रियसन्निकर्ष होने पर जो पर्वत में बहिन का प्रत्यक्ष होता है वह भी शिखर आदि में बह्नि का वावज्ञान होने से नितम्ब में ही वहन्यवगाहिज्ञान में पर्यवसित होता है। अतः जैसे- नितस्यावच्छेदेन अग्निशान में पर्यवसित होनेवाली पर्वत में वहिन की अनुमिति अनुमिति ही है, अर्थापत्ति नहीं है, एवं पर्यंत के