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________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेधन ] [८९ 10 वीं कारिका में यह बताना पमा सधन कTAत्रयम मानलाया पापा ममाणा ___यतश्चैवम् , अत आह-- प्रमाणपञ्चकात्तिरेवं तत्र न युज्यते । तथाप्यभावप्रामाण्यमिति स्वाध्यविजम्भितम् ||१८॥ प्रमाणपश्चकात्तिः माबोफ्लम्भकयावत्प्रमाणाविष्यत्वम् एवम्-उक्तरीत्या, तत्र सर्वज्ञे न युज्यतेन घटते । तथापि एवमपि व्यवस्थिते, अभावप्रामाण्यम्=अभावप्रमाणस्य सर्वज्ञाभावनिश्चायकत्वम् इति अदः स्वान्ध्य विजृम्भितम् स्वाज्ञानविलसितम्, सदुपलम्भकसाम्राज्येनाभावप्रमाणस्यैवानुत्थानात् । वस्तुतोऽभावस्य पृथक्प्रमाणत्वमेवाऽसिद्धम् , भावांशमाहिणेन्द्रियेणेवाभावांशग्रहणात् । न च सम्बन्धाभावः, योग्यतारूपस्य तस्याभावायोगात् संयोगस्य च भावाशोपलम्भेऽप्यतन्त्रत्वात् , चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वव्यवस्थितेः । कथमेतदेवम् ? इति चेत् । शृण, प्रसङ्गसंगतमेतत्तत्त्वं निरूपयामः – चक्षुर्न प्राप्यकारि, अधिष्ठानाऽसंबद्धार्थग्राहकेन्द्रियत्वात् , मनोवत् । न चाप्रयोजकत्वम् नितम्ब देश में अग्नि ग्रहण में पर्यवसित होनेवाला पर्यंत में यङ्गिप्रत्यक्ष प्रत्यक्ष ही है, अर्थापत्ति नहीं है उसी प्रकार सामान्यानुमिति की सामग्रो के समय एक विशेष के बाघ ज्ञान से होनेवाली विशेषान्तरप्रकारक अनुमिति भी अनुमिति ही है, अर्थापत्ति नहीं है ।:१७ [सवेज्ञ को अभाचप्रमाण का विषय मानने में अज्ञान] 'यह बताया गया भावसाधक पानों प्रमाणों को अशक्त बताना तथा 'अभावप्रमाण' से उस के नास्तित्व का साधन करना अयन है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है भाव के माधक जितने प्रमाण हैं सघंश उन सभी का अविषय है. यह बात पूतिरीमि से युक्तिसंगत नहीं है। "सर्बज्ञ की अनुपलब्धिरूप अभाव प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध होता हैं" यह कथन असर्वशवादी के अज्ञान का ही फल है क्योंकि सर्वश के अस्तित्व को सिद्ध करनेवाले अनेक प्रमाण विद्यमान रहने से 'अभाब' प्रमाण का उत्थान असंभव है। सच तो यह है कि अभाघ का अतिरिक्त प्रामाण्य ही असिद्ध है, क्योंकि जिम इन्द्रिय से भाष का प्राण होता है उसी से अभाव का भी ग्रहण मम्पन्न हो सकता है । अभाव के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध न होने से इन्द्रिय द्वारा उसका ग्रहण अशक्य है। यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि योग्यतारूप सम्बन्ध अभाव के साथ भी सुलभ है और संयोगसम्बन्ध ती भावग्रहण में भी अपेक्षित नहीं है, क्योंकि युक्ति द्वारा यह निर्णात है कि चक्षु अपायकारि असम्बद्ध अर्थ का ग्राहक होता है । चनु असम्बद्ध अर्थ का ग्राहक होने में क्या युक्ति है, यह विषय यद्यपि प्रस्तुत विचार का अङ्ग नहीं है फिर भी प्रसङ्गमाप्त है, अतः इस की चर्चा कर लेना उचित है। [चच-अप्राप्यकारिता वादस्थल] चक्षु प्राप्यकारी ( सम्बन अर्थ का ग्राहक) नहीं है क्योंकि वह अपने अधिष्ठान-स्थान में असम्बद्ध अर्थ की ग्राहक इन्द्रिय है. जो इन्द्रिय अपने अधिष्ठान से असम्बद्ध अर्थ की ग्राहक १. मुद्रित मूलंपुस्तके यानभ्वधि' इति पाटः।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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