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[ शाखबारो० स्त. १०/१८
संबद्धार्थ ग्राहकत्ये तस्य वहिनजलावलोकनादिना दाहक्लेदादिप्रसङ्गात् , अधिष्ठानाञ्चक्षुषो विभागेऽन्धस्वासनाच्च ! अथ नयनाद नायना रश्मय एव निर्गस्य प्राप्य च वस्तु रविरश्मय इव प्रकाशमादति, सूक्ष्मत्वेन तेजसत्वेन च तेषां वहन्यादिभिदाहादयो न भत्रिप्यन्तीति चेत् । न , चक्षुषस्ते जसत्वस्यवासिद्धेः । न च 'चक्षुस्तैजसम्, रूपादिधु मध्ये रूपस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात् , प्रदीपवत्' इत्यनुमानात् तत्सिद्धिः, चक्षुःविषयसयोगेनानैकान्तिकत्वात् , 'द्रव्यत्वे सति' इति विशेषणेऽप्यजनविशेषेणानेकान्तिकत्वाच्च । एतेन 'रूपसाक्षात्काराऽसाधारणकारणं तैजसम् , रसाऽव्यञ्जकरचे सति फाटकाचन्तरित नकाशकत्वात् , प्रदीपयत्' इत्यपि निरस्तम् 'अञ्जनादिभिन्नरवे सति' इति विशेषणदाने चाऽप्रयोजकत्वात् , अञ्जनादिवच्चक्षुषोऽतैजसत्वेऽप्यक्षतेः, चक्षुः प्रदीपयोरेकया जात्या व्यकत्वाऽसिद्धेश्च । होती है वह सम्बद्ध अर्थ की ग्राहक नहीं होती, जैसे : मन अपने अधिष्ठान शरीर देश से असम्बद मेरु आदिरूप अर्थ का अथवा अपने अधिष्ठान शरीर से असम्बद्ध दूरस्थ वस्तुओं का चिस्तनरूप में प्राहक इन्द्रिय होने से अपने से असम्बद्ध तत्तत् अर्थों का ग्राहक होता है । उक्त हेतु में अप्रयोजकत्व की शक्का नहीं की जा सकती-अर्थात् अधिष्ठान से असम्बद्र अर्थ ग्राहक इन्तियत्व में असम्बद्ध अर्थ के ग्राहकत्वरूप साध्य के व्यभिचार की शहा करनेवाले तर्क के अभाव की शहा नहीं की जा सकती, क्योंकि इस शाध के फलस्वरूप में सम्बद्ध अर्थ की ग्राहकता प्रसपत होगी जो मान्य नहीं हो सकती, क्योंकि चश्च यदि सम्बद्ध अर्थ का ग्राहक होगा तो अग्नि का अवलोकन करने पर उसके दाह की और जल का अवलोकन करने पर उस में किसना=आई होने की आपत्ति होगी । यह कैसे सम्भव हो सकता है कि जो अग्नि से संयुक्त हो उसका दाह न हो और जो जल से संयुक्त हो वह किसन न हो।
दूसरी बात यह है कि चक्षु से दीख पडनेवाले पदार्थ तो चक्षु के अधिष्ठान से दूर ही रहते हैं । अतः शु को ही अधिष्ठान से पृथक् होकर उनके पास जाना होगा, फारतः अधिठान देश चाहीन हो जाने से रष्टि अन्ध हो जायगी, क्योंकि पकबार अधिष्टान से निकल जाने के बाद चन के पुनः अधिष्ठान में प्रत्यावर्तित होने का कोई उपाय नहीं है।
[चक्षु तैजस किरणमय होने की आशंका ] यदि यह कहा जाय कि-" चक्षु य विश्व के पास स्वयं नहीं जाता किन्तु उसकी किरणे वहां तक फलती है । प्रष्टव्य विषय चक्षु की किरणों से सम्बद होने से ही चक्षु से सम्बद्ध होते हैं । यह किरण अन्य विषय का दर्शन हो जाने पर पुन: चक्ष में लौट आती हैं। यह कल्पना कोई अनहोनी कल्पना नहीं क्योंकि सूर्य की किरणों में यह बात देखी जाती है। तो जैसे सूर्य के अपने स्थान में अवस्थित रहते हुए उसकी किरणों का सृदूर तक फलाव होने से सुदूरवर्ती पदार्थों का प्रकाश होता है और जय सूर्य अस्त होने को होता है तब सारी किरण लौटकर सूर्य में समाहित हो जाती है । उसी प्रकार घक्षु के अपने अधिष्ठान में ज्यों के न्यो बने रहते हुये उसकी किरणें दूर तक अवस्थित वस्तुओं का स्पर्श कर उनका अवलोकन सम्पन्न करती है तथा वक्षु को अन्ध करने का विधार होते ही सारी किरणे लौटकर चक्षु में समाहित हो जाती है । अतः किसी वस्तु के अबलोकनार्थ चक्षु के बाहर होने पर भ्रष्टा के अन्धत्य का प्रसङ्ग नहीं हो सकता | अग्नि के अवलोकन से वाह की तथा जल के अवलोकन