________________
८२]
[शाखवार्ता० स्त० १०/१७ निश्चेतुं शक्येत तदा स्थादेव कुम्भकारकार्यता, केवलं तदेव निश्चेतुमशक्यमिति । द्वितीयेन यत्संनिधाने प्रवर्तमानं तत्कार्यं दृष्टं तावतां मध्ये यस्याभावात् तद् नोपलभ्यते तत्र तत्कार्यत्वं निश्चीयते । न चामि-काष्ठादिसंनिधाने भवतो धुमस्यापनीते कुम्भकारादावनुपलम्भोऽस्ति, अग्न्यादौ त्वपनीते भयत्यनुपलम्भः । इति परस्परसहितौ प्रत्यक्षा-ऽनुपलम्भौ तन्निश्चायको । सर्वकालममिसंनिधाने भवतश्च धूमस्यानग्निजन्यत्वं कदाचिदजन्यत्वेनाहेतुकत्वेन अदृश्यहेतुकत्वेन वा शक्येत, तत्र फादाचित्कल्वा-इभ्याद्यन्वयानुविधायित्वज्ञानेन तन्निवृत्तिरिति दिग् ।
न चाय प्रकारोऽमर्वज्ञत्व-वक्तृत्वयोः संभवति, असर्वज्ञत्वधर्मानुबिधानस्य वचनेऽदर्शनात् । साहि-असत्वं यदि पयुदासन किश्वज्ञत्वमुच्यते तदा तद्धर्मानुविधानाऽदर्शनाद् न ताजन्यता वचनस्य । न हि किञ्चिज्ज्ञत्वतरतमभावाद् वचनस्य तरतमभाव उपलभ्यते, किचिज्ज्ञत्वप्रकर्ष
कुम्भकारजन्य त्वरूपआपायव्य तिरेक की उक्त प्रकार की शंका का निवर्तक नहीं है। और वास्तविकता यह है कि उस प्रकार के अनुपलम्भ से सहकृत प्रत्यक्ष ही कार्यत्व का ग्राहक होता है ! कहने का आशय यह है कि यदि यह निश्चय हो सके कि कुम्भकार के सन्निधान के पूर्व गर्दभ का उस देश में अभाव होता है अन्य स्थान से वहाँ उस का आगमन नहीं होता और कुम्भकार से अन्य उसका कोई कारण भी नहीं है तो अवश्य उसमें कुम्भकार के कार्यत्व की सिद्धि हो सकती है। किन्तु सत्र बात यह है कि गर्दभ में उन तीनों वार्ता का निश्चय शक्य ही नहीं है।
जिन पदार्थों के सन्निधान में जो कार्य उपलब्ध होता है उन पदार्थों में से जिसके अभाव में उस कार्य का उपलम्भ नहीं होता उस कार्य में उस पदार्थ के कार्यत्व का निश्चय होता है। यह निश्चय प्रत्यक्ष पृर्वक अनुपलम्म से होता है क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष पहले उपस्थित होता है और अनुपलम्भ बाद में उपस्थित होता है। यद्यपि अग्निकाण्ठ आदि के साथ कुम्भकार के सन्निधान में शृमरूप कार्य का उपलम्भ होता है, तथापि कुम्भकार का अभाव हो जाने पर धूम का अनुपलम्भ नहीं होता, नथापि अग्नि आदि का अभाव होने पर धृम का अनुपउम्भ होता है । इसलिये प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ दोनों मिल कर कार्यता के निश्चायक माने जाते है । यदि irमा न माना जायगा तो कुम्भकार सन्निधान के अभाव में रामभ के अनुचलम्भ से गसम में तथा कुम्भकार के मन्निधान में धूम के उपलम्भ से धूम में कुम्भकारकार्यत्व की सिद्धि की आपत्ति होगी । अग्नि से इतर अपने समस्त कारणों के सन्निधान के सम्यकाल में अग्नि का सन्मिधान होने पर होनेवाले धूम में कदाचित् अग्नि-अजन्यत्य की -किसी भी समय जन्य न होने से, एवं अहेतुकन्ध से तथा अष्टश्यहेतुकत्व से यदि अमिजन्यवाभाव की-शङ्का हो तो उसकी मिवृत्ति कादाधिकत्व और अग्नि के अन्वयानुषिधायित्व के नाम से हो सकती है।
[वक्तृत्त्व असर्वज्ञता का कार्य नहीं है] सो प्रकार अग्नि और धूम में बताया गया वह असशस्त्र और वक्तृत्व में नहीं है क्योंकि वचन में असर्वशत्म के धर्म का अनुविधान नहीं देखा जाता । जैसे : भसर्वशत्व शहद में नन् पद का पयुदास प्रतिषेध अर्थ मानने पर असर्वज्ञत्य का अर्थ होता है किश्चिदसत्व । वचन में