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स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ]
[ ८६ कार्यकारणाभिमत पदार्थविषयं तद्विविक्तान्यवस्तुविषयं च प्रत्यक्षाऽनुपरम्मशब्दाभिधेयम् । कदाचिदनुपलम्भपूर्वकं प्रत्यक्षं तदभावसाधकम् , कदाचिच्च प्रत्यक्षपुरस्सरोऽनुपलम्भः । तत्राद्येन येषां कारणाभिमतानां संनिधानात् प्रागनुपलब्धं धूमादि यत्संनिधानादुपलभ्यते तस्य सत्कार्यता व्यवस्थाप्यते, 'बहन्यतिरिक्तकारणसमवहितो धूमो यद्यग्निजन्यो न स्यात, अमिनिधानात् प्रागपि तत्र देशे स्यात् , अन्यतो वाऽऽगच्छेत् ' इत्या पाद्यन्यतिरेकशक्काया अनुपलम्भेन निरासात् । संनिहितधूमे जायमानस्य बहिनजन्यत्वनिश्चयस्य सामान्योपयोगेन सामान्ये पर्यवसानात् ।
एतेन प्रागनुपलब्धस्य रासनस्य कुम्भकारसंनिधानान्तरमुपलभ्यमानस्य तत्कार्यता स्यात् इति निरस्तम् तथाहि-तत्रापि यदि रासभस्य तत्र प्रागसत्त्वम् , अन्यदेशादनागमनम् , अन्याकारणत्वं च
[अग्नि और धूम्र में कार्य-कारणता की सिद्धि ] वह्नि के होने पर धूम का उदय देखा जाता है और बहिन के अभाव में धूम का उदय नहीं देखा जाता । यद्यपि यह सत्य है फिर भी इतने मात्र से ही धृम में अग्निकार्यस्य नहीं सिद्ध होता किन्तु बहिनधर्म की अनुवृत्ति से उस की सिद्धि होती है। यह तथ्य इस प्रमाणावासिक के वचन से व्यक्त होता है कि "हुतभुक-वदि के कार्यधर्म का अनुवर्तन करने से धृम वति का कार्य समझा जाता है" | यह स्पष्ट है कि दर्शन और अदर्शन मात्र से कार्यत्व की अवगति नहीं होती किन्तु प्रत्यक्षानुपलम्भ नामक विशिष्टप्रमाण से उसकी प्रमिति होती है। प्रत्यक्षानुपलम्म शब्द से किमी अतिर्गिक्तप्रमाण का अभिधान न होकर उस प्रत्यक्ष का ही अभिधान होता हैं जो कार्य और कारण रूप में अभिमतपदार्थ को तथा उन दोनों से विलक्षण अन्य वस्तु को विषय करता है । यह प्रत्यक्ष कभी अनुपलम्भपूर्वक प्रत्यक्ष के रूप में कार्यत्व का साधक होता है और कभी प्रत्यक्षपूर्वक अनुपलम्भ के रूप में कार्यत्व का साधक होता है। जिन कारणाभिमत पदार्थों के सान्निधान से पहले उपलब्ध न होनेवाला धृम आदि जिस के सन्निधान से उपलम्ध है है, धूम आदि में उसके कार्यत्व की सिद्धि अन्नपलम्भपूर्वक प्रत्यक्ष से होती है क्योंकि अनुपलम्भ से "वहिन से भिन्न अपने समस्त कारणों के सन्निधान देश में भ्रम यदि अग्नि से जन्य न हो तो अग्नि के सन्निधान के पूर्व भी उस देश में उसे होना चाहिये । अश्या स्थानान्तर से वहाँ आना चाहिये" इस अग्निजन्यत्वरूप आपायव्यतिरेक की शङ्का का निरास होता है और सन्निहित धृम में होनेवाले बहिजन्यत्व निभय का सामान्य उपयोग से म सामान्य में पर्यवसान होता है । इस प्रकार अग्नि से भिन्न धूम के समस्त कारणों के सन्निधान काल में अग्निसन्निधान से पूर्व शृम के अनुपलम्भ और अग्निसन्निधान होने पर धूमसामान्य के उपलम्भ में पर्यवसान होने से धूम सामान्य में अग्निजन्यन्य की सिद्धि होती है।
[गर्दभ में कुम्भकारकार्यत्व के प्रसंग का निरसन] __ अनुपलम्भपूर्वक प्रत्यक्ष को कार्यत्व का निश्चायक मानने पर यह शङ्का हो सकती है कि 'कुम्भकार के सन्निधान के पूर्व अनुपुलब्ध गर्दभ का कुम्भकार के सन्निधान के अनन्तर उपलम्भ होने की दशा में गर्दभ में कुम्भकार की कार्यता की प्रसक्ति हो सकती है। किन्तु यह शङ्का इसलिये निरस्त हो जाती है कि कुम्भकार के सन्निधान के पूर्व गर्दभ का अनुपरम्भ
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