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[ शास्त्रवार्ता० स्त० १० / १७
गोत्रस्खलना देरभावप्रसङ्गात् । अथ विवक्षाव्यभिचारेऽपि शब्दविवक्षायामव्यभिचार इति चेत् ? न, स्वप्नावस्थायामन्यगतचित्तस्य वा तदभावेऽपि वक्तृत्वसंवेदनात् । न चाऽसर्वज्ञत्वादिना वचनस्यान्वया सिद्धावपि तदभावे सर्वत्र वक्तृत्वं न भवति' इत्यत्र प्रमाणाभावात् प्रत्यक्षा- ऽनुपलम्भसाध्यः कथं हेतुहेतुमद्भाव निश्चयः ? इति वाच्यम् । वह्निमस्थलेऽप्येवं सुवचत्वात् तर्क बलेन नियमस्य चोभयत्र सुग्रहत्वादिति चेत् ?
न, वह्नि - धूमयोरिवासर्वज्ञत्व वतृत्वयोः कार्यकारणभावाभावात् ।
तथाहि-‘वह्निसद्भावे धूमो दृष्टस्तदभावे न दृष्टः' इत्येतावतैव न धूमस्यामिकार्यत्वम्, किन्तु वह्निधर्मानुविधायित्वम्, “कार्य घुमो हुतभुजः कार्यं श्रर्मानुवृत्तित:" [ प्र०वा० ३।३५ ] इति वचनात् । तच्च न दर्शना दर्शनमात्र गम्यम्, किन्तु विशिष्टात् प्रत्यक्षा- ऽनुपलम्भाख्यात् प्रमाणात् प्रतीयते । प्रत्यक्षमेच
अन्य शब्द के प्रयोग का दर्शन होने से यह सिद्ध है कि जिस अर्थ की विषक्षा नहीं होनी उस अर्थ के भी बोधक शब्द का प्रयोग होता है। यदि ऐसा न हो तो गोत्र आदि के बताने में मनुष्य का जो स्खलन होता है वह न हो सकेगा। इस प्रकार विपक्ष में भी मन के व्यभिचार का उपलम्भ होने से विवक्षा भी वचन का कारण नहीं हो सकती । यदि यह कहा जाय कि ' अन्य की विवक्षा में अन्य शब्द के प्रयोग से अर्थविवक्षा का ही व्यभिचार सिद्ध होता है. शक्षा का नहीं अतः शब्दविवक्षा को घवन का कारण कहा जा सकता है ' -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि स्वभावस्था में पत्रं वित्त के अन्यत्र आसक्त होने की दशा में किसी प्रकार की विवक्षा न होने पर भी वक्तृत्व- वचनप्रयोग की उपलब्धि होती है। अतः शब्द विषक्षा को भी वचन का कारण नहीं माना जा सकता है ।
यदि यह कहा जाय कि-' असशत्व आदि के साथ वचन का अन्वय असिद्ध है। एवं असशत्व के अभाव में वक्तृत्व का अभाव होता है। इस व्यतिरेक में कोई प्रमाण नहीं है । अतः असर्वशत्व और वस्तुत्व में हेतुहेतुमद्भाव का निश्चय कैसे हो सकता है ? क्योंकि वह प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ से ही साध्य होता है । वे दोनों ही असर्वशत्व और वक्तृत्व में नहीं है तो reate नहीं है क्योंकि ऐसी बात वह्नि धूम के सम्बन्ध में भी बिना किसी अवरोध से कही जा सकती है । अर्थात् यह कहा जा सकता है कि आईंन्धन के अभाव में बहिन के रहने पर भीम में अन्य नियम असिद्ध है । एवं वह्नि शून्य सभी स्थलों के दुर्ज्ञेय होने से उन सभी स्थानों में घूम का अभाव होता है यह किसी प्रमाण से ज्ञात नहीं हो सकता । अतः प्रत्यक्षानुपलम्भ का अभाव होने से वह्नि और भ्रम में भी हेतुहेतुमद्भाव का निश्रय नहीं हो सकता | 'धूम यह्नि का व्यभिचारी होने पर वह्निजन्य नहीं हो सकता' इस तर्क से यदि भ्रम में वह्नि के नियम का ग्रहण किया जायगा तो 'वक्तृत्व असत्य का व्यभिचारी होने से असज्ञत्वजन्य' न हो सकेगा इस तर्क से वक्तृत्व में असत्य के नियम का भी निर्धारण किया जा सकेगा । फलतः यह प्रश्न बना रहेगा कि असर्वेक्षत्व और षक्तृत्व में हेतुहेतुमद्भाव होने से सर्वश में वक्तृत्व कैसे हो सकता है ?
इस के उत्तर में व्याख्याकार का कहना है कि वह्नि और भ्रम में हेतुहेतुमदभाव के समान असnes और वक्तृत्व में हेतुहेतुमद्भाव न होने से उक्त प्रश्न निराधार है।