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[ शास्त्रबार्ता स्त० ९ श्लो०७
तथा अलं तेन तेन द्रव्यलिङ्गाधवाप्तिप्रकारेण उत्कृष्टाचासु-त्रिंशद्-विंशति-सप्ततिकोटाकोटीसागरोपममानासूत्कृष्टासु यथाप्रवृत्तिकरणाधीनग्रन्थ्यवाप्त्ययच्छिनासु प्रत्येकमेकसागरोपमकोटाकोट्यूनासु शेषाधिकोटाकोट्यन्तःस्थितिरूपासु च कर्मस्थितिषु-जानावरण-दर्शनावरण-वेदनीपा-ऽन्तराय-नाम-गोत्र-मोहनीयस्थितिषु अतीतासु-अतिक्रान्तासु सतीषु ॥६॥ किमित्याहमूलम् तदर्शनमवाप्नोति कर्मग्रन्धि सुदारुणम् |
निर्भिय शुभभावेन कदाचिस्कश्चिदेव हि |७|| कदाचित तथाभव्यत्वपरिपाककाले, कश्चिदेव हि-अधिकृतो भव्यः, सुदारुण = दुभेदम् प्रन्थिदेशं प्राप्तानामपि तत्वावल्याद् बहूना गाढकर्मणां पुनरुत्कृष्टबन्धश्रवणात् , उक्तंहि
[मुक्तदशा में कोई भेदभाव नहीं होता ] यदि यह कहा जाय कि 'मुक्ति के पूर्व जोवों में लक्षण्य मामने पर मुक्ति होने पर भी उनमें वलक्षण्य होगा' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि मुक्तिमात्र सम्पूर्ण कर्मों का हो काय है प्रतः हेतु में वलक्षण्य न होने से कार्य में वलक्षण्य नहीं हो सकता। कहने का आशय यह है कि मुक्ति सम्पूर्ण को का क्षयरूप है प्रतः उसमें सम्पूर्ण कर्म प्रतियोगिविषया हेतु हैं इसलिए सभी मुक्ति संपूर्ण को से हो साध्य होने से समानहेतुक है अत एव उसमें बैलक्षण्य को सम्भावना कथमपि नहीं हो सकती। प्रत्युत, जैसे निर्धन और धनपति में मत्यु के पूर्व बलक्षण्य होने पर भी आयुःकर्म के क्षयरूप अविशिष्ट कारण से होनेवाले उनके मरण में कोई लक्षण्य नहीं होता उसोप्रकार मुक्ति के पूर्व संसारी जीवों में बलक्षण्य होने पर भी उनकी मुक्ति में वैलक्षण्य नहीं हो सकता क्योंकि सभी जोयों की मुक्ति समानतक होती है। अतः सत्य यही है कि तत्तज्जातीय कारण से ही तसज्जातीय कार्य की उत्पत्ति होती है । मुक्ति को प्रयोजक है भव्यत्व जाति जो मुक्ति गमन योग्य सभी जीवों में रहती है और अभब्य जीवों में नहीं रहती। प्रत्येक भव्य जीव के भिन्न भिन्न परिणाम होते हैं और उन परिणामों से प्रत्येक जोय में लक्षण्य होता है इस बलक्षण्य के अनुरोष से प्रत्येक भध्य जीव में भिन्न भिन्न प्रकार का भष्पस्य सिद्ध होता हैउसीको तथामध्यस्व कहते हैं । भम्पत्य मुक्तियोग्य जीव मात्र में रहनेवाली एक व्यापक जाति है और सयाभव्यत्व विभिन्न भव्य जीवों में रहनेवाली अवान्तर जाति है ऐसा भी कह सकते हैं जैसे कि घटत्व पौर तद्घटस्व।
भव्य जीव सम्यगदर्शनप्राप्ति के पूर्व अनन्तशः द्रव्यलिंग को प्रहण करता है। ऐसा करते परमयथाप्रवृशकरण के अध्यवसाय से प्रन्थिदेश को प्राप्त करते हुए जब मोहनीयकर्म की ७० कोटीकोटीसागरोपमप्रमित वीस्थिति, ज्ञानाबरणा-दर्शनावरण-वेवतीय और अंतराय की ३० कोटाकोटोसागरोपमप्रमित स्पिति और नाम-गोत्र कर्मयुगल को २० कोटाकोटीसागरोपमप्रमित स्पिति का ह्रास होकर सभी कर्मों की स्थिति एक कोटाकोटीसागरोपम से भी कुछ न्यून जय हो जाती है, (तभी उस प्रन्धि का भेवन करके कोई एक भव्य जीव सम्यगदर्शन को प्राप्त करता है, इतना प्रप्रिम कारिका के साथ सम्बन्ध है।)