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________________ स्या०० टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ ६९ "ग्रन्थिदेशं तु संप्राप्ता रागादिप्रेरिताः पुनः । उत्कृष्टबन्धयोग्याः स्युश्चतुर्गतिंजुषोऽपि ते ॥१॥" अन्थि-काष्ठादेरिवात्मनः सुदृढकठिनपरिणामम् , उपतं हि गठि ति सुदुम्मेओ कक्खडघणरूढगूढगंठिन्छ । जीवस्स कम्मणिओ घणरागहोसपरिणामो ॥ १ ॥" [वि॰आ०मा० ११६२] शुभभावेन=परमवीर्योल्लासजनिताऽपूर्वकरणरूपेण, निर्मिध अतिक्रम्य,-अनिवृतिकरणादन्तरकरणे कृते सत्यग्रे वेदनीयस्य मिथ्यात्वस्य विरलीकरणादान्तमु हतिकं तत-आग्निरूपितस्वरूपम्, दर्शन-सम्यक्त्वम् अवाप्नोति । इदं च प्राथमिकमौपशमिफसम्यक्त्वमभिधीयते, मिध्यात्वस्यानन्तानुबन्धिनां च भस्मच्छमाग्निवदुपशमात् । तदुक्तम्५२उक्सामगसेढीमयस्स होइ उत्सामियं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो अखवियमिच्छो लहड सम्म ॥१॥" इति [ वि० आ० मा० ५२६ ] ___ इदमेव हि प्रथमो मोक्षोपायः । उक्तं -[ "यमप्रशमजीवातु बीजं ज्ञान-चरित्रयोः । हेतुस्तपःश्रुतादीनां सदर्शनमुदीरितम् ॥ १॥" इति ।। [प्रथम सम्यग्दर्शन के प्रादुर्भाव की शेष प्रक्रिया ] ७वीं कारिका में यह बताया गया है कि कर्म को उत्कृष्ट प्रादि स्थितियों के अतीत होने पर क्या होता है । कारिका का अयं इस प्रकार है तथाभण्यस्व के परिपाक का समय आने पर कोई एक अधिकृत भष्यजीष दुर्भध कर्भग्रन्थि का शुभमाव से भेवन कर मोक्षोपयोगी वर्शन को प्राप्त करता है । जीव को कर्मप्रन्थि दुर्भध होती है। शास्त्रों में ऐसा सुना जाता है कि-'जीव प्रतिपदेश को प्राप्त होकर भी राम आदि की प्रेरणा से पुन: उस्कृष्ट बन्ध के योग्य होते हैं तथा नारक, तिर्यक, मनुष्य और देव इन चार योनियों में प्रावुत होते हैं। प्रन्थि का अर्थ है-प्रात्मा में राग-द्वेष का एक विशेष परिणाम जो काष्ट मादि के समान दृढ और कठोर होता है। कहा भी गया है कि-'मन्यिजीव का कर्मजन्य रागषात्मक दृढ परिणाम है ओ मस्यन्त दृढ तथा कठोर गूढ प्रन्थि के समान दुर्भेध होता है !' इस कर्मग्रन्थि का मेदन जीष के शुभ भाव से होता है। शुभमाव का अर्थ है अपूर्वकरण जो परमवीर्य के उल्लास से सम्पन्न होता है। कर्मग्रन्थि के मेवन से वशन-सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। १. अन्थिरिति सुदुर्भदः कर्कशवनरूहगूढनन्थिरिव । जीवस्य कर्मजनितो धनराग-देषपरिणामः ॥१॥ २. उपशमश्रेणिगतस्य भवत्यौपशमिकं तु सम्यक्त्वम् । यो वाऽकृतत्रिपुडजोऽक्षपितमिथ्यात्वो लभते सम्यक्त्वम् ।। ३. अपूर्वकर पा – अनादिसंसार में अभूतपूर्व शुभ अध्यवसाय । ४. परमवीर्यसमुल्लास - आत्महित का ओर प्रगति का भारी आंतरिक उल्लास ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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