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[ शास्त्रवार्ता स्त०६ श्लो०७
इत्थं च यदुक्तम्- ' तथा चाऽपकृष्टस्थितिकादिस्वभावतः इत्यादि, तन्निरस्तम् ; यथाप्रवृत्तिकरणाद्यर्जितापकृष्टस्थितेर भव्यादिष्वपि संभवेऽप्यपूर्वकरणादिकृतान्यकर्म स्थितेरन्यत्रासंभवात् । यदपि 'किञ्च, एवं दर्शनादेः' इत्याद्युक्तम्, सवष्ययुक्तम्, अपूर्वकरणादिरूपप्रयत्नसाध्यत्वाद् दर्शनस्य, मोक्षतदुपाययोः पुरुषकृत्यसाध्यत्वाऽयोगात्, मल्लप्रति मल्लोषमयोजीवकर्मणोरेकशक्तिपराभवादन्यशक्त्युद्रकात प्राककर्म सामर्थ्याभिभूतत्वेऽपि तदा जीवपराक्रमप्राबल्यात् । यते चैतद्योगाचार्यैरपि विशिष्टाद्यकरणादीनां प्रवृत्त्यादिशब्दवाच्यतया " प्रवृत्ति पराक्रम - जयाऽऽनन्द-ऋतम्भरभेदः कर्मयोगः" इति श्रवणात् । प्रवृत्तिश्चरमयथाप्रवृत्तिकरण शुद्धिलक्षणा, पराक्रमेण - अपूर्व करणेनेत्यर्थः, जयः = प्रतिबन्धाभिभवोऽनिष्षृतिकरणमित्यर्थः, आनन्दः सम्यग्दर्शन लाभरुषः, ऋतम्भरः सम्यग्दर्शनपूर्वको देवतापूजनादिव्यापारः, प्रवृत्यादयो भेदा यस्य स तथा कर्मयोगः - क्रियालक्षणः, कर्मग्रहणमिच्छालक्षण प्रणिधानयोगव्यच्छेदमिति ।
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सभ्यश्व का स्वरूप पहले बताया जा चुका है, वह 'आन्तर्मु हतिक होता है- अन्तर्मुहुर्तकाल तक स्थिर रहता है, वह अनिवृत्तिकरण से 'अन्तरकरण हो जाने पर वहां आगे के उत्तरकाल में datta former के विरलीकरण से यानी मिध्यात्वक मंदलिक शून्यावस्थाकाल से अदभूत होता है । इस सम्यक्त्व को प्रथमभावी औपशमिक सम्यक्त्व कहा जाता है, क्योंकि यह मस्मा अग्नि के समान मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी कर्मों के उपशम मात्र से सम्पादित होता है। कहा भी गया है कि- 'उपशमश्रेणि में गये जीव को प्रौपशमिक सम्यक्त्व होता है अथवा मिध्यात्व का क्षय न किया हो और उसके तीन पुंज-तीन अवस्था ( शुद्ध-अशुद्ध-अशुद्ध ) न की गयी हो उस दशा में पुरुष इस सम्यक्त्व का लाभ करता है।' यह सम्यक्त्व ही मोक्ष का प्रथम उपाय है। कहा भी गया है कि सदर्शम सभ्यवश्व, यम और प्रशम का प्राण है, ज्ञान और चारित्र का बीज है तथा तप, श्रुत प्रावि का कारण है ।
[ अपेक्षित कर्मस्थितिहास सर्व जीव में असम्भव ]
तीसरी कारिका की व्याख्या में जो यह शङ्गा की गई थी कि अपकृट स्थिति वाले कर्म से यदि मोक्षोपाय के अनुकूल परिणाम प्राप्त करेगा तो अभव्यजीवों को मो मोक्षोपाय की प्राप्ति सम्भव हो जाएगी' वह शंका उक्त रूप से मोक्षोपाय की प्राप्यता का प्रतिपादन कर देने से निर्मूल हो जाती है, क्योंकि यथाप्रवृत्तकरण से अभव्य आविजीवों में कर्म की अपकृष्टस्थिति का सम्पादन हो जाने
१. अन्तर्मुहूर्तिक एक मुहूर्त के अन्दर पूर्ण हो जाने वाला ।
२. अनिवृत्तिकरण पुन उग्र रागद्वेष की दशा में न गिरे ऐसा अध्यवसाय
३. अन्तरकरण - मिथ्यात्व की स्थिति को दो भाग में बांट कर बीच में मिथ्यात्र मोहनीयकर्म का एक भी कर्मदलिक न रहे ऐसी शुन्यावकाश अवस्था ।
४. यथाप्रवृत्तकरण ग्रन्थिदेश प्रापक सामान्य अध्यवसाय |