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स्याका टोका एवं हिन्वी विवेचन ]
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न चैवं सत्त्वानां प्राग विशेष मुक्तावपि विशेषः स्यादिति वाच्यम् , कृत्स्नकर्म कार्याया मुक्तेहेत्वविशेषेणाऽविशेषान् , दरिद्रेश्वरयोः प्राग विशेषेऽप्यविशिष्टायुःचयकार्यमरणाऽविशेषवदुपपत्तेः। तआतीयादेव हेतोस्तजातीयं कार्यमुत्पधत इति परमार्थः । तत्र मुक्तत्वग्रयोजिका सामान्यतोऽभव्यच्यावृत्ता जातिभव्य त्यमिति गीयते, प्रत्यात्म तथातथापरिणामितया सम्रपाचविशेषा च तथाभव्यत्वमिति सिद्धम् ।
[ मोक्षोपाय सभी को सुलभ क्यों नहीं ? ] प्रस्तुत स्तबक की प्रथम कारिका में जो यह शङ्का की गई है कि यदि मोक्ष के उपाय का अस्तित्व है तो उस उपाय से समस्त प्राणियों को मोक्ष की प्राप्ति क्यों नहीं होती?-छठी कारिका इसी शडा का समाधान करने के लिये प्रवृत्त है। इसका अर्थ यह है कि जो जीव योग्य होता है वही मोक्ष का उपाय प्राप्त कर पाता है. समस्त जीयों में योग्यता न होने से सबको मोक्षोपाय सलम न हो सकले के कारण सबको मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। जोय की इस योग्यता को 'मध्यरथ' कहा जाता है । यह मध्यस्व अनाति है, इस भव्यत्व के स्वमाय बनिन्य से जीव द्रध्यलिङ्गप्रादि के प्राप्तिक्रम से उत्कृष्ट मादि कर्मस्थितियों के अतीत होने पर मोक्ष के प्रथम कारणभूत दर्शन को प्राप्त करता है ।
व्याख्याकार ने 'भव्यत्व' की सिद्धि के लिये कुछ युक्तियाँ वसाई हैं, उनका कहना है कि मोक्षहेतुओं के लिये ही यह बात नहीं है कि वे जीव की (उपादानकारण को) भव्यत्यरूपयोग्यता को अपेक्षा से ही मोक्ष का जनक होता है; अपितु अन्य कार्य के हेतुत्रों का भी यही स्वभाव है कि ये उपादान की योग्यताधिशेष से ही फल विशेष के उत्पादक होते हैं, क्योंकि जाति के अनुच्छेद से ही गुणप्रकर्ष होता है । जिसबस्तु में विशेषजाति-विशेषयोग्यता होतो है वही गुणप्रकर्ष का पात्रमूस होने से कार्यविशेष की प्रयोजक होती है।
___भव्य अभव्य सभी जीव यद्यपि समानरूप से संसारी होते हैं फिर भी उनमें जातीय माम्य ठोक उसीप्रकार नहीं होता जैसे मिट्टी के अन्दर पडे हुये असली नकली रत्नों में समान मालिन्य होने पर भी जातीय साम्य नहीं होता, उनके मालिन्य में अन्तर न होने पर भी उनकी जाति में अन्तर होता ही है। यह निर्विवाद है कि यदि जीवों में जातिमूलक भेद न हो तो उनमें तीयकृत , अन्तकृत केवली आदि रूप में होनेवाले अन्तिम परिणामों में भी भेद न हो सकेगा, अर्थात योग्यता तारतम्य के प्रभाव में कोई तीर्थकर, कोई अन्तकृत और कोई सामान्य केशलो नहीं हो सकता । तीर्थकरमाव आदि का परम्परया हेतु होता है बोधिलाभ उत्कृष्ट उत्कृष्टतरादि सम्यक्त्व की प्राप्ति. यह प्राप्ति भी योग्यताविशेष का ही फल है. अत: जीवगत भग्यत्व भी विचित्रस्वभाव वाला होने का अभ्युपगम न्यायप्राप्त है। यदि यह कहा जाय कि किसो एफ हेतु में स्वभाव मेव आवश्यक होने पर भी अन्यहेतु में स्वभावभेद को सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर कुछ हेतुनों में हेतुस्वभाव का भी प्रतिषेध सम्भव होने से उन हेतुनों से नियतस्वभावोपेत कार्य को उत्पत्ति न हो सकेगी। यदि योग्यता को अपेक्षा किये विना सदाशिव के अनुग्रह से तस्वधर्म की प्राप्ति आवि फलों की उत्पत्ति मानी जायगी तो जीवमात्र में समानता की आपत्ति होगी, क्योंकि शिवानुग्रह सभी जीवों को सुलभ हो सकता है।