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[ शास्त्रवार्त्ता स्त० ६ श्लो० ६
यदुक्तम्- 'किं वा न सदा सर्वदेहिनाम्' इति, तदुत्तराभिधित्सयाऽऽह--- मूलम् - अनादिभव्यभावस्य तत्स्वभावस्वयोगतः । उत्कृष्टाथास्वतीतासु नथाकर्म स्थितिध्वलम् || ६ ॥ अनादिभव्यभावस्य तत्तज्जीवसंबन्धिनोऽनादेर्भव्यत्वस्य तत्स्वभावत्वयोगतः प्रकृ
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तिवैचिश्यात् । न चैतदसिद्धम्, इतरहेतूनामपि फलविशेषे योग्यता विशेषापेक्षणात् जात्यनुच्छेदेन गुणप्रकर्षा ( १ ) भावात, अशुद्धतायामपि जास्याज्जात्यरत्नयोरिव साम्याऽसिद्धेः, अन्यथा तीर्थं कृदन्त कृत्केच लिभावादिपार्यन्तिकफल विशेषानुपपत्तेः, परम्परा हेतु बोधिलाभादेरपि तत्फलस्वात् तत्रापि स्वभावभेदावश्यकत्वात्, 'एकत्र हेतौ स्वभावभेदो नान्यत्र' इत्यभ्युपगमे च हेतुस्वभावविप्रतिषेधात् नियतस्वभावकार्यानुदयप्रसङ्गाद् योग्यतामनपेक्ष्य सदाशिवानुग्रहादिना तत्त्वधर्मप्राप्त्यादिफलविशेषशेपगमे च सर्वसाम्यप्रसङ्गात् ।
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कतिपय अन्य विद्वानों ने सवेग और निर्वेद का संवेग का अर्थ है संसार के प्रति वंराग्य और निबंद का होगा कारण और निर्वेद होगा कार्य। दोनों ही मतों में उलटफेर है ।
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परस्पर विपरोत अर्थ किया है, उनके अनुसार अर्थ है मोक्षाभिलाष, प्रतः इस मत में संवेग कोई सात्त्विक अन्तर नहीं है केवल शब्दों का
अनुकम्पा का अर्थ है बिना पक्षपात के दुःखो जीवमात्र के दुःख को दूर करने को इच्छा, पक्षपात से दुःख को दूर करने की इच्छा अनुकम्पारूप नहीं कहो जाती किन्तु ऐसी इच्छा सामान्य दया में परिगणित होती है जो अपने पुत्रावि के सम्बन्ध में व्याघ्र आदि हिंस्र पशुओं को भी होती है। अनुकम्पा के वो भेव हैं - द्रव्य अनुकम्पा और भाव अनुकम्पा, शक्ति के अनुसार दुःख का प्रतीकार करना द्रव्य अनुकम्पा है, दुःख प्रतीकार का सामर्थ्य न होने पर मी दुःखी प्राणी के प्रति आहृदय होना भाव अनुकम्पा है। कहा भी गया है कि भीषण संसारसागर में प्राणिवर्ग को दःख भोगते देखकर साधु पुरुष को निष्पक्ष भाव से सामर्थ्यानुसार दो प्रकार की प्रनुकम्पा होती है।
आस्तिक्य का अर्थ है अन्योपदिष्ट तत्त्व को सुनकर भी (किसी लौकिक निमित्त के अभाव में भी ) 'जिन' द्वारा उपदिष्ट तत्त्व को ही निराकांक्ष भाव से स्वीकार करना। कहा भी गया है कि जिस पुरुष में शुभपरिणाम का उदय हो जाता है वह किसी अन्य फल की प्राकाङ्क्षा या विस्रोतसिका के बिना 'जिन' के उपदेश को ही असंदिग्ध सत्य और सम्यक् मानता है ।
दूसरे विद्वानों ने शम आदि की व्याख्या अन्य प्रकार से की है। उनके अनुसार 'शम' का अर्थ है मिथ्या श्रभिनिवेश-भूठे आग्रह का उपशम, 'संवेग' का अर्थ है संसार से त्रस्त होना, 'निर्वेद' का अर्थ है विषयों में अनासक्ति, 'अनुकम्पा' का अर्थ है अपने सुख-दुःख के समान समस्त प्राणियों के सुख-दुख को प्रिय तथा अप्रिय जानकर अन्य प्राणियों को किसी भी प्रकार की पोडा न करने की इच्छा, और 'अस्तिक्य' का अर्थ है भगवान् से उपदिष्ट सूक्ष्म श्रतीन्द्रिय भावों में असम्भावना का विरोधी सद्भावात्मक परिणाम ।