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________________ स्या० १० टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [६५ अन्य विद्वानों के अनुसार 'शम' का अर्थ है कोषजन्य कण्डू और विषयों की सृष्णा का उपशम । कृष्ण, धेणिक आदि वर्शनसम्पन्न पुरुषों में इस शम का अभाव होने पर भी कोई क्षति नहीं है क्योंकि लिग (ज्ञापक) में लिङ्गी (जाप्य) को व्याप्ति होती है न कि लिङ्गो में लिङ्गकी व्याप्ति होती है, अतः लिङ्ग के विना मलिङ्गी को बन हाल कृष्ण आदि से राम के विना भी दर्शन का अस्तिस्व सङ्गत हो सकने के कारण दर्शन को शमादि से अभिव्यङ्ग्य मानने में कोई क्षति नहीं है । अयवा यह भी कहा जा सकता है कि कृष्णा मादि में जो क्रोध कण्ड और विषयतृष्णा है वह संज्वलन कषाय के उदय से है क्योंकि कुछ कषाय संज्वलन रूप भी ऐसे होते हैं जो तीव्र होने के कारण प्रनन्तअनुबन्धवाले कषायों के परिणामों के समान परिणाम के जनक होते हैं। कहने का आसय यह है कि क्रोधकण्ड ओर विषयतृष्णा का आत्यन्तिक उपशम सर्वविध कषायों के अनुदय से होता है, कृष्ण आदि में क्रूर कषायों का अनुदय होने पर भी संज्वलन कषाय का उदय होने से कषाय सामान्य का अनुवय नहीं है। अतः उनमें क्रोधकण्डू और विषयतृष्णा का आत्यन्तिक अभाव नहीं है किन्तु इसके न होने पर भी शम और दर्शन के लिङ्गलिङ्गभाव में बाधा नहीं हो सकती क्योंकि ऋर कषायों के उदय से होनेवाली क्रोधकण्ड और विषयतृष्णा का उपशमरूप शम ही दर्शन का लिङ्ग है और वह संज्वलन कषाय के उदय से जन्य कोधक और विषयतृष्णा होने पर भी दर्शनसम्पन्न कृष्ण आवि में विद्यमान हो सकते हैं। ___संवेग का अर्थ है मोक्ष की इच्छा, इसका उक्य इन्द्रपद की प्राप्ति से होनेवाले सुखपर्यन्त सम्पूर्णसुख में बु खानुषङ्गमूलक दुःखरूपता के ज्ञान से होता है और यह ज्ञान सम्यग् दर्शन से प्राप्त होता है, जैसा कि कहा गया है-'जो पुरुष सामान्यमनुष्य के सुख से लेकर देवेन्द्र तक के सम्पूर्ण सुख को मावत: वःख ही मानता है, वह सवेग यानी मोक्षाभिलाष से मोक्ष को छोडकर अन्य किसी वस्तु की कामना नहीं करता। निर्वेद का अर्थ है संसार के प्रति बराग्य, वैराग्य का अर्थ है संसार के नियत सहमायो दुःख के प्रति द्वेष, यह संसार दुःख और दुर्गति से भरा कठोर कारागार है उसमें निवास करने वाला मनुष्य इसके दुःख का प्रतीकार करने में यपि समर्थ न हो फिर भी उसके प्रति उसे देष तो होता ही है, उसका यह दुःखद्वेष हो संसार के प्रति उसका वैराग्य है। बराग्य शब्दार्थ के सम्बन्ध में यदि यह विमर्श हो किवैराग्यशब्द को 'विगतो रागो यस्मात्स विरागः-तस्य भावः राग्यम्-जिससे राग निवृत्त हो गया हो वह विराग है और उसका असाधारणधर्म वैराग्य है' इस पुस्पति के अनुसार उसका अर्थ रागाभाव हो सकता है न कि भावात्मकद्वेष-तो वैराग्य के सम्बन्ध में यह कहना उचित होगा कि संसारदुःख के प्रति द्वेष वैराग्य नहीं है किन्तु उस वेष से सांसारिक सुख के प्रति इच्छा का जो विभव होता है तद्रूप जो संसार में ममत्व का प्रभाव है वही वैराग्य है । कहा भी गया है कि जिसे निव-संसार के प्रति बैराग्य है किन्तु परलोक का मार्ग अप्राप्त है वह ममतारूप विष के वेग से रहित होकर नारकीय, तिर्यक , मनुष्य और वेव योनियों में दुःख से दिन काटता है। १. संज्वलनकषाय । कषाय के चार प्रकार होते हैं -अनंतानुबन्धा, २-अप्रत्याख्यानीय, ३-प्रत्याख्यानावरण, ४-संज्वलन । यहां संज्वलन पद के उपलक्षण से अप्रत्याख्यानीय और प्रत्याख्यानावरण भी समझ लेना जरूरी है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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