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________________ स्या, क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ १३२ तद्विशिष्टे शक्तिग्रह इति चेत् ? न, गादावप्यतुगतव्यवहारसिद्धाया जातेः प्रतिक्षेपाऽयोगात्, श्रोत्रग्राह्यत्वादिना तद्व्यवहारान्यथासिद्धयोगात् , तस्यातीन्द्रियघाटतत्वात् , जातेराकृतिव्यमयत्वनियमे मानाभावाच्च । यच्च प्रत्यभिज्ञयैव ज्ञात-जायमानशब्देश्यमभिहितम्, तदसत्, लुनपुनतिकेशनखादिष्विव तस्या भ्रान्तत्वात्, अन्यथोत्पाद-विनाशपतीत्यनुपपत्तेः तार-मन्द-शुक-सारिकाप्रभवादिशब्देन नानाविधेष्वपि वर्णषु प्रत्यभिज्ञादर्शनात् तस्या भ्रमत्वाऽवश्यकत्वाच । व्यक्ति तो जाति से आक्षिप्त होती है शब्द से शात जाति के द्वारा उस के आभयभूत व्यक्ति का अनुमिति किंवा अर्धापत्ति के रूप में आक्षेपात्मक बोध होता है । अतः धूम-बदि को शब्दअर्थ के दृष्टान्तरूप से प्रस्तुत करना उचित नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है कि उक्त बात दोनों में समान है, यतः यह निर्विवादरूप से कहा जा सकता है कि जैसे अनित्य अर्थ में अनित्य शब्द का सम्बन्धग्रह नहीं होता किन्तु अर्थगत जाति में शब्दगत जाति का सम्बन्धग्रह होता है और उस सम्बन्धमह से अर्थगत जाति का बोध होने पर अर्थ का आक्षेप होता है, उसी प्रकार धूम में वह्नि का सम्बन्धग्रह नहीं होता किन्तु धूमत्ष में वद्वित्व का सम्बन्धग्रह होता है और उस सम्बन्धमह से चहित्य का बोध होने पर वदि का आक्षेपा-मक बोध होता है। किन्तु सत्य तो यह है कि 'जाति में ही शब्द का सम्बन्धमान होता है व्यक्ति में नहीं' यह बात ही अयुक्त है क्योंकि एक साथ ही जाति विशिष्ट व्यक्ति में शब्द का सम्बन्धग्रह होता है। [गकारादि में शब्दत्त्वजाति अनिवार्य यदि यह कहा जाय कि-' समस्त धृमों में धृमत्वजाति होती है अत: उम जाति से समस्त धृमन्यक्तियों का अनुगम सम्भव होने से समस्त धृमव्यक्तियों में तो बति के व्याप्तिसम्बन्ध का ग्रह हो सकता है। पर गकार आदि वण में शब्दत्य आदि जाति न होने से उस के दाम विभिन्न शब्दों का अनगम शक्य न होने से समस्त शब्दध्यक्तियों में अर्थ के शनिलम्बन्ध का शान नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जाति अनुगत व्यवहार से सिद्ध होती है अतः जब गोत्व आदि जातियों में जातिपद के अनुगत व्यवहार से उन में भी जातिसिद्धि का परिहार नहीं हो सकता, तय गकार आदि में शब्द के भनुगत व्यवहार से सिद्ध होने बाली शरवस्त्रजाति का परिहार नहीं हो सकता है। अतः शब्दत्व जाति से अनुगतीकृत ममस्त शब्दष्यक्तियों में अर्थ के शक्ति सम्बन्धमह को दुर्घट नहीं कहा जा सकता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि 'गकार आदि में अनुगत शब्दध्यबहार श्रीजग्राह्यगुणन्य को विषय करता है न कि शब्दत्वनाति को, अत: गकार आदि में शब्दत्वजाति की सिद्धि असम्भव है। क्योंकि श्रोत्रग्राह्य गुणत्व अतीन्द्रिय श्रोत्र से घटित होने के कारण दुग्रह है. अतः उस के द्वारा शब्द के अनुगत व्यवहार की उपपत्ति सम्भव न होने से उस के उपपादक विषय के रूप में शब्दत्व जाति की सिद्धि अनिवार्य है। __ यह भी नहीं कहा जा सकता कि 'जाति आकृति से म्यङ्गच होती है अत: गकार आदि की कोई आकृति न होने से उस में शब्दत्वज्ञाति की परिकल्पना असम्भव है -क्योंकि 'जातिमात्र आकृतिव्यङ्गब होती है। इस नियम में कोई प्रमाण नहीं है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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