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________________ १३६ । [ शास्त्रार्ता० स्त. १०/३६ एतेन 'उत्पाद--विनाशपतीतीनामेव भ्रमत्त्वमस्तु । न चोत्पाद-विनाशप्रतीतीनां भ्रमत्वकल्पनामपक्ष्य प्रत्यभिज्ञामात्रम्य तत्कल्पने लाइवम् , प्रत्यभिज्ञानामप्यानन्त्यात् , विषयवाहुल्यस्य ज्ञानवाहुल्याऽ प्रयोजकत्वात् । न च ' उत्पन्नो गकारः, विनष्टो गकारः' इति चैधय॑ज्ञानकालोत्पत्तिकायाः प्रत्यभिज्ञायास्तज्जातीयाऽभेदविषयकत्वम्, 'श्यामो नष्टः, रक्त उत्पन्नः' इति ज्ञानकाले ‘स एवायं घटः' इति व्यत्येक्यप्रतीतिस्तु तत्र विशिष्टोत्पादादिपतीतेः शुद्ध व्यक्त्यमेदाऽविरोधित्वात् । इह तु शुद्धस्यव गकारादेरुत्पादादिधीरिति विशेषादिति वाच्यम् ताशवधर्म्यज्ञानाभावकालोत्पन्नपूर्वापरकालीनव्यक्त्यभेद्रविषयकपत्यभिज्ञया संदक्यसिद्धावुत्पादादिप्रतीतेर्वायुसंयोगात्पादादिविषयकत्वस्य सुवचत्वात् , वह्यादी धूमादिव्याप्तिभ्रमवद् नित्ये ऽपि शब्दे स्वत्वगर्भस्यापि सखण्डोत्पादस्य भ्रमसंभयात साक्षाद्विरोधिनस्तथाविधोत्पादस्य व्यावर्तकत्वनाऽगृहीतत्वात् तबुद्धय॑क्स्यभेदबुद्धयविरोधित्वाच्च इत्युक्तावपि न क्षतिः। प्रत्यभिज्ञा से शब्द में एकत्व सिद्धि का असंभव ] ज्ञात और शायमान शब्दों में प्रत्यभिज्ञा द्वारा जो ऐक्य की सिद्धि बताई गई, वह भी संगत नहीं है, क्योंकि शक्ति केश और छिन्न नख में पुनः उत्पन्न केश और नग्य का भेद होने पर भी उन में ऐक्य की प्रत्यभिज्ञा होने से प्रत्यभिज्ञा भ्रमात्मक होती है अतः उन्म के वाग कभी भी सेक्य की मिद्धि नहीं हो सकती । अन्यथा ज्ञान और शायमान शब्दों के फ्य की प्रत्यभिक्षा से यदि शहद को निम्य माना जायगा तो गकारादि चणों में जो ‘गकार उत्पन्न हुआ, गकार विन हुआ इस प्रकार के उत्पत्ति-विनाश की प्रतीति होती है उस की उपपत्ति न हो सकेगी। बग्ने सत्य तो यह है कि श्रुत एवं भूयमाण शन्दों में पं.क्य की प्रत्यभिज्ञा भ्रम ही है. क्योंकि तार, मन्द, शुकप्रभव, सारिकाप्रमच आदि भेद में अनेकविध गकारादि २ में भी पक्य की प्रत्यभिज्ञा इस प्रकार होती है कि जो मकार पहले तार सुनाई पडा वही अब मन्द सुनाई पड़ रहा है। एवं 'जो गकार शुक के मुख से सुन पडा वही सारिका के मुम्ब से भी सुन पड रहा है।' यह प्रत्यभिशा विविध वर्गों में पंक्य को विषय करने से निर्विघादकप से भ्रम हैं । अतः जैसे शब्दविषयक यह प्रत्य भिक्षायें भ्रम हैं उसी प्रकार श्रुत तथा भूयमाण शब्दों में ऐक्य की प्रत्याभिशा का भी भ्रमरूप होना ही उचित है । इमलिये उस के बल से शब्द की निन्यता का माधन असम्भय है । [शब्दनित्यतावादी का सविस्तर प्रतिपादन अबाधक ] शब्दनित्यत्यवादी का कहना यह है कि-गकार आदि वर्गों में जो उत्पत्ति और विनाश की प्रतीति होती है, वही भ्रम है, श्रुत और श्रयमाण वर्णी में जो प्रेक्ष्य की प्रत्य भिक्षा होती है, वह भ्रम नहीं है। यदि यह कहा जाय कि 'उत्पत्ति और विनाश की बहुतर प्रतीतियों को भ्रम मानने की अपेक्षा प्रत्यभिज्ञात्मक पक प्रतीनि को भ्रम मानने में लाघव है, तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्यभिज्ञा भी विषय दृष्टि से एक होने हुये भी स्वरूपदृष्टि से अनन्त है। यदि यह कहा जाय कि 'उत्पति उत्पधमान के भेद से. तथा घिनाश प्रतियोगी के भेद से अनन्त है. अतः उन्हें विषय करनेवाली प्रतीतियों का आनन्त्य उचित है. पर प्रत्यभिज्ञा तो पूर्वज्ञात और वर्तमान में झायमान विषय के अभेदात्मक एकत्रिषय को ग्रहण करती है, इसलिये उसका आनन्त्य अनुचित है' तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनेक विषयों को ग्रहण करनेवाले सम्हालम्बन ज्ञान के पक होने से तथा एक ही विषय को ग्रहण करनेवाले क्रमोन्गन्नझानों में भेद होने से विषयमाहुल्य में कानबाहुल्य की प्रयोजकता असिद्ध है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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