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________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेश्चन ] । १३७ [ज्ञात और ज्ञायमान में ऐक्य निरापद ] यदि यह कहा जाय कि-'गकार में निलय के सति औ. वीजा रूप धर्य के ज्ञानकाल में जो पूर्वज्ञात और वर्तमान में शायमान गकार में ऐक्य की प्रत्यभिक्षा होती है वह शायमानव्यक्ति में ज्ञातव्यक्ति के अभेद को विषय नहीं करती किन्तु शायमान में ज्ञात के सजातीय के अभेद को विषय करती है | अत: ज्ञात और शायमान गकार में भेद दोने पर भी दोनों में साजात्य होने से झायमान गकार में शातगकार के सजातीय के अभंद को विषय करने से प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य की भी उपपत्ति हो जाती है और उस से ज्ञात और शायरान में पेक्यसिद्धि की आपत्ति भी नहीं होती । ज्ञात और शायमान गकार में प्रत्यभिज्ञा की उक्त रूप से उपपत्ति करने पर यपि यह शंका हो सकती है कि-'श्याम घद नष्ट हो गया, रक्त घट उत्पन्न हुआ' इस शान के समय होनेवाली 'यह वही घट है' इस प्रकार की श्याम और रक्त घट केक्य की प्रत्यभिज्ञा भी यह बड़ी गकार है। इस प्रम्यभिज्ञा के समान व्यक्ति अभेदविषयक न होकर सजातीयाभेदविषयक हो जायगी। अत: इस प्रत्यभिज्ञा से भी व्यक्त्यभेद की सिद्धि न होगी'-किन्तु विचार करने पर यह शङ्का उचित नहीं प्रतीत होती क्योंकि श्यामरूपविशिष्ठघर के नाश की प्रतीति पत्रं रक्तरूपविशिष्टघट के उत्पाद की प्रतीति विशेषण के नाश और उत्पाद के द्वारा उपपन्न हो सकने से शुद्ध घटव्यक्ति के अभेद की विरोधिनी नहीं होती, अत: पूर्व में श्याम और वर्तमान में रक्त घर के अभेद को विषय करनेवाली उक्त प्रतीति व्यक्तिअभेद विषयतया प्रमा हो सकती है पर पूर्वशात और वर्तमान में ज्ञायमान गकार में नस्य को विषय करनेवाली प्रत्यभिज्ञा व्यक्त्यभेदविषयक प्रमा नहीं हो सकती क्योंकि शुद्ध गकार के उत्पाद और विनाश की प्रतीति से उत्पन्न एवं विनष्ट गकार में भेद सिद्ध होने से उक्त प्रतीति द्वारा उत्पन्न-विनष्ट गकार का अभेद बाधित है ।'-तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि गकार में उत्पत्ति और विनाश की प्रतीति की अभावदशा में जो ग्रह थही गकार है' यह प्रत्यभिज्ञा होती है उस से पूर्वज्ञात और शायमान गकार में यय के सिद्ध होने में कोई बाधा न होने से, गकार में होनेवाली उत्पत्ति और विनाश की प्रतीति के विषय में यह कहा जा सकता है कि यह प्रतीति गकार के व्याक वायुसंयोग की उत्पत्ति और विनाश को विषय करती है अथवा यह भी कहा जा सकता है कि यह प्रतीति नित्य शब्द में उत्पत्ति आदि को विषय करने से भ्रम है। [ उत्पत्ति की प्रतीति में भ्रान्तता अनुपपन नहीं] यदि यह कहा जाय कि-' उत्पत्ति स्वाधिकरणक्षणध्वंसानधिकरणक्षण सम्बन्ध रूप है। जैसे जो व्यक्ति जिस क्षण में उत्पन्न होता है यह क्षण उस व्यक्ति के अधिकरणभूतक्षणों के धंस का अनधिकरण होता है क्योंकि उस के पूर्व उस व्यक्ति का अभाव होने से उस के पूर्व का क्षण उस का अधिकरण नहीं होता । और जो क्षण उस व्यक्ति के अधिकरण होते हैं उन में उस का उत्पत्तिक्षण सर्वप्रथम क्षण है जो उस क्षण में नष्ट न होकर उस के अगले क्षण में मट होता है अत: उस क्षण के साथ उस व्यक्ति के सम्बन्ध को ही उस व्यक्ति की उत्पत्ति कही जाती है। निस्यव्यक्ति सभी क्षणों में रहता है अतः प्रत्येक क्षण उस के अधिकरणभूत अपने पूर्वक्षण के धंस का अधिकरण होता है, इसलिये उत्पत्ति के उक्त लक्षण में स्वशब्द से नित्य व्यक्ति को ग्रहण करने पर उत्पत्ति की अप्रसिद्धि हो जाने से नित्य में उस का भ्रम
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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