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________________ १३८ ] [ शास्त्रवार्ताः सस०१०/३६ न च तारत्वादिकं ध्वनिधर्म एव शब्द आरोप्यते, न तु शब्दस्य स्वाभाविक रूपमिति वाच्यम् : तस्य तारस्वादिधर्मबत्तयैव नित्यमनुभूयमानतया तत्र तारत्वाद्यारोपाऽयोगात् । तदुक्तम्--- “यो ह्यन्यरूपसंवेद्यः संवेद्येतान्यथापि वा । स मिथ्या न तु तेनैव यो नित्यमुपलभ्यते ॥१॥'इति नहीं हो सकता क्योंकि एक प्रसिद्ध का ही अन्यत्र भ्रम होता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस दृष्टि से विचार करने पर घर्ति में भूम की व्याप्ति का भी भ्रम नहीं होगा। यतः व्याप्ति स्वव्यापकसामानाधिकरण्यरूप है, जैसे: धुम में धृमध्यापकवति का सामानाधिकरण्य यही धूम में बहिन की व्याप्ति है, किन्तु स्याप्ति के लक्षण में स्वशब्द से घहिन को पकडने पर धूम में घहिन की व्याप्ति यहिनव्यायकधूमसामानाधिकरण्यरूप होगी जो कि धूम धहिन का व्यापक न होने से अप्रसिद्ध है। अत: यहिन में धूमव्याप्ति के भ्रम की उपपत्ति यह कहकर करनी होगी कि यद्यपि वहिनध्यापकधूमसामानाधिकरपय अखण्डरूप में प्रसिद्ध नहीं है किन्तु वहियापकत्व और धमलामानाधिकरण्य इन दो खण्डों में प्रसिद्ध है। अतः वायु में प्रसिद्ध घहिन व्यापकत्व का थूम में अवगाहन कर वहिन 'स्वव्यापक धूम का समानाधिकरण है। इस प्रकार वहिन में धूम व्याप्ति का भ्रम हो सकता है। तो जैसे वहिन में भ्रम की मखण्डव्याप्तिभ्रम की उपपत्ति होगी उसी प्रकार नित्यपदार्थ में सखण्ड उत्पाद के भी भ्रम की उपपत्ति हो सकती है। जैसे-यह कहा जा सकता है कि यद्यपि नित्यपदार्थ के अधिकरणभूतक्षणों के भवंस का अनधिकरणक्षण अप्रसिद्ध होने से अखगडरूप में नित्य का उत्पाद अप्रसिद्ध है, तथापि नित्याधिकरण समानाधिकरणत्व और क्षणसम्बन्ध इन दो दण्डों में प्रसिद्ध है अतः गगन आदि में प्रसिद्ध नित्याधिकरणक्षणध्वंसानधिकरणत्व का क्षण में अवगाहन कर नित्यपदार्थ में स्थाधिकरणक्षण,सानाधिकरणक्षणसम्बन्धरूप सखण्ड उत्पाद का भ्रम हो सकता है। [प्रत्यभिज्ञा में सजातीयाभेदविपयकता का निराकरण ] जो यह कहा गया कि-'गकार में उत्पत्ति-विनाश की प्रतीति के समय 'यह बही गकार है' इस प्रकार श्रुत और श्रुयमाण गकार में अभेदग्राहिणी प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती अत: वह व्यपस्यभेदविषयक न होकर सजातीयाभेदविषयक' वह भी ठीक नहीं है क्योंकि उक्त प्रव्यक्ति के अभेद का अभावरूप न होने से उसके अभेद का साक्षाद विरोधी नहीं है और अमेद के च्यावर्तक अभेवाभाव के व्याप्यरूप में गृहीत भी नहीं है। अतः उस का शान विनष्टव्याप्ति की अभेद बुद्धि का विरोधी नहीं हो सकता। इसलिये गकार में उत्पत्ति और विनाश की प्रतीति के समय भी उत्पन्न रूप में प्रतीत श्रूयमाण गकार में विनष्टरूप में प्रतीत श्रुत गकार के अभेद को ग्रहण करनेवाली प्रत्यभिज्ञा का सम्भय होने से उस के बल से शब्द की नित्यता प्रतिष्ठित करने में कोई बाधा नहीं है। सविस्तर प्रतिपादन का निरसन] शमनित्यत्वयादी के उक्त सविस्तर कथन पर यदि विचार किया जाय तो यह निश्चित होता है कि उक्त कथन से भी शब्द के मनित्यतापक्ष की कोई क्षति नहीं है क्योंकि लून -पुनर्जात केश आदि की प्रत्यभिशा के समान श्रुत पर्व श्रूयमाण गकार आदि के ऐक्य की प्रत्यभिक्षा को भी भ्रम मान लेने में कोई आपत्ति न होने से तथा प्रत्यभिक्षा से भिन्न शब्द की नित्यता का साधक कोई प्रमाण न होने से गकार आदि की उत्पति भौर विनाश की प्रतीति के अनरोध से शब्द की अनित्यता का अभ्यगम निष्कंटक है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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