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________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] न च ध्वनिधर्मत्वे तारत्वादीनां ग्रहणमप्युपपद्यते, स्पर्शाद्यनन्तर्भावेन त्वगादीनामशब्दधर्मत्वेन च श्रोत्रस्य तत्राऽव्यापारात् 'सन्तु तर्हि ध्वनयो नाभसा' इति चेत् न, तथापि व्यक्तियोग्यतान्तर्भूतत्वाज्ञातियोग्यतायाः 'तारोऽयम्' इत्यादी ध्वन्यस्फुरणे तद्‌गतता रत्याद्यस्फुरणप्रसङ्गात् । न चेदेवम्; कत्वादिकमपि वायुगतमेवा रोप्येतेति शब्देवयं स्यात्, कादेरपि वा बायुधः स्यात् । 'अस्त्वेवं को दोषः ?' इति चेत् ? वायुगतयोग्यधर्मत्वे तद्गतस्पर्शादिवत् वचा ग्रहप्रसङ्गः, अवयवगुणत्वेऽनित्यत्वस्य परमाणुगुणत्वे चाग्रहणस्य प्रसङ्गः ॥ [ १३९ [ तार-मन्दता शब्द में आरोपित नहीं है । यदि यह कहा जाय कि ' तारत्व मन्दस्य ध्वनि का धर्म है, शब्द में उस का आरोप होता है. शब्द का वह स्वाभाविक धर्म नहीं है अतः तार और मन्द प्रतीत होने वाले शब्दों में भेद न होने से तार और मन्द शब्द की ऐक्य प्रत्यभिक्षा को कहना सम्भव न होने से उस के उप्रान्त से ज्ञात और ज्ञायमान गकार आदि में ऐक्य की प्रत्यभिक्षा को भ्रम नहीं कहा जा सकता तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शब्द का अनु आदि रू से ही सर्वदा होता है अतः उस में तारत्व आदि का आरोप नहीं माना जा सकता। कहा भी गया है कि जो पदार्थ बहुधा किसी एक रूप से संविदित होता है वह यदि कभी अन्य रूप से भी संविदित होने लगता है तो वह अन्य रूप उस का आरोपित रूप होता है किन्तु जिस रूप से जो पदार्थ सदा संविदित होता है वह उस का आरोपित रूप नहीं होता । [तार - मन्दता को ध्वनि के धर्म मानने में आपत्ति ] सत्य तो यह है कि तारत्व आदि शब्द की ही स्वाभाविक धर्म है ध्वनि का नहीं, क्योंकि यदि उसे ध्वनि का धर्म माना जायगा तो उस का ज्ञान ही न हो सकेगा क्योंकि वायु आदि स्वरूप ध्वनि के तारत्व आदि धर्मों का स्पर्श आदि में अन्तर्भाव न होने से उसके ग्रहण में स्व आदि का, तथा शब्द का धर्म न होने से उसके ग्रहण में क्षेत्र का व्यापार नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि 'ध्वनि को वायु आदि स्वरूप मानने पर ही उक्त दोष हो सकता है अतः उसे वायु आदि स्वरूप न मानकर नाभस - आकाशमय मान कर उक्त दोष की सम्भावना समाप्त की जा सकती है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जाति की प्रत्यक्षयोग्यता व्यक्ति=आश्रय की प्रत्यक्ष योग्यता पर निर्भर होती है अतः 'तारोऽयम्=यह तार है' इस प्रतीति में नाभस होने के नाते अयोग्य ध्यनि का भान न होने पर उसके तारत्य आदि धर्म का भी भान न हो सकेगा । और यदि अयोग्य ध्यति का धर्म होने पर भी तारत्व आदि को प्रत्यक्ष योग्य माना जायगा तो यह भी कहा जा सकेगा कि ककार, खकार आदि जो धर्म शब्द में प्रतित होते हैं उन में अनेकत्व नहीं है किन्तु शब्द एक ही है। कब, खत्ष आदि जो धर्म शब्द में प्रतीत होते हैं वे शब्द के धर्म न होकर वायु के धर्म हैं, शब्द में उस का आरोपमात्र होता है । अथवा यह भी कहा जा सकेगा कि ककार आदि भी वायु के ही धर्म हैं, शब्द का कोई अतिरिक्त अस्तित्व ही नहीं है । यदि यह कहा जाय कि ' कोई दोष न होने से इस पक्ष का अभ्युपगम हो सकता है। तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कत्व आदि को अथवा ककार आदि को वायु का प्रत्यक्षयोग्य धर्म मानने पर बायु के स्पर्श आदि के समान त्वगिन्द्रिय से उसके ग्रहण की आपत्ति होगी । एवं अवयत्री वायु का गुण मानने पर अनित्यता की तथा वायुपरमाणु का गुण मानने पर उसके अप्रत्यक्षत्व की आपत्ति होगी ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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