________________
१४० ]
[ शास्त्रवार्ताः स्त० २०३६ किंच, नित्यत्वे शब्दस्य सर्वदा सर्वोपलब्धिप्रसङ्गः । विजातीयवायुसंयोगादीनां व्यञ्जकत्व च नित्यसर्वगतस्य गकारादेवर्णस्य, श्रोत्रस्य, उभयस्य वाऽऽबारकाणां वायूनामपनयनाद् वर्ण-श्रोत्रतदुभयसंस्कारक्रमेण वक्तव्यम् । तत्र वर्णसंस्कारपक्ष आवारककृतनिशानजनक शक्तिप्रतिबन्धापनयनद्वारा विज्ञानजनकशक्त्याविर्भावने शक्ति-शक्तिमतोः कथञ्चिदर्भवाद् वर्णस्वरूपमेयाविर्भावितं भवति, इति कथं न वर्णस्य व्यञ्जकजन्यत्वम् !, जनकसनिधानप्रागुत्तरकालीनज्ञानजननाऽजननस्वभावभेदावश्यकत्वाच्चेति किमभिव्यक्त्या ? अपि च, वर्णाभिव्यक्तिपक्षे कोष्टयेन वायुना यावद्वेगमभिसर्पता यावान् वर्णविभागोऽपनीतावरणः कृतस्तावत एव श्रवणं स्याद् न समस्तस्य वर्णस्य, इति खण्डशस्तत्प्र
[विजातीय वायु संयोग में व्यंजकता की अनुपपत्ति शब्द के नित्यतापक्ष में दूसरा दोष यह है कि शब्द यदि नित्य होगा तो सब को सबंदा उसके प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी । इस के अतिरिक्त यह भी दोष होगा कि विजातीय वायुसंयोग मादि उस का च्यञ्जक न हो सकेगा क्योंकि उस में तीन ही प्रकार से ध्यञ्जकता सम्भव है। एक यह कि वह वर्ण के आवारक का अपनयन कर के वर्ष का संस्कारक होने से पूर्ण का ध्यञ्जक हो । दृसरा यह कि वह श्रोत्र के आवारक का अपनयन कर श्रोत्र का संस्कार होने से वर्ण का व्यञ्जक हो। और तीसग यह कि वह घणे और श्रोत्र दोनों के आवारक का अपन यन कर दोनों का संस्कारक होने से वर्ण का व्यञ्जक हो । इन तीनों प्रकारों में यदि वर्णमस्कार पक्ष को स्वीकार किया जायगा तो घर्ण में व्यनकजन्यता की आपत्ति होगी क्योंकि आवारक से वर्ण की अपनी घिशानजनकशक्ति का जो प्रतिबन्ध होता है उसके अपनयन से वर्ण की विज्ञान जनक शक्ति का आविर्भाव कर के ही विजातीय घायुसंयोग को वर्ण का व्यञ्जक कहना होगा, अतः शक्ति और शक्तिमान में कथंचित अभेद होने से वि० वायुसयोग द्वारा शक्ति का आवि. भाव होने पर शक्तिमान वर्ण का ही आविर्भाव मानना होगा, तो जब वणे यायुसंयोग से आधिभंत होगा तो उम का अर्थ ही यह होगा कि वह घायुमंयोग से जभ्य है, क्योंकि आविर्भाव उत्पत्ति का ही नामान्तर है । दूसरी बात यह है कि शब्द में जब यह स्वभावभेद मानना आवश्यक है कि पद जनक- व्यञ्जक के सन्निधान से पूर्व अपने ज्ञान का अजनक होता है और जनक सन्निधान के उत्तर काल में अपने ज्ञान का जनक होता है तो वह तो जन्य का ही स्वभाव है अतः वायुमंयोग से शब्द की उत्पत्ति मानना ही युक्तिसंगत है न कि उसे अस्वीकार कर अभिव्यक्ति मानना ।
[खण्डितवण-श्रवण की आपत्ति ] वर्णाभिव्यक्ति पक्षमै एफ और दोष है वह यह कि कोष्ठगत वायु से वर्ण की यदि अभिब्यक्ति होगी तो वायु पूरे घेग से वर्ण के जितने भाग तक पहुंच कर उस के आवरण का अप. नयन कर सकेगा, वर्ण के उतने ही भाग का श्रयण होगा, पूरे वर्ण का श्रवण न होगा । फलतः यणं की खण्डशः प्रतिपत्ति स्वीकार करनी पड़ेगी। यदि कहा जाय कि 'वर्ण निर्भाग है अत: एक ओर आवरण का अपनयन होने पर यह सर्वत्र आवरण मुक्त हो जाता है इसलिये उक्त दोष नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि घणं की निर्भागता के आधार पर जैसे उक्त बात कही जायगी उसी प्रकार यह भी बात कही जा सकेगी कि वर्ण जब एकत्र आवरणयुक्त होगा तो सत्र आयरणयुक्त होगा । फलत: वर्ण का किंचित् भी श्रवण न हो सकेगा क्योंकि