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स्या, क. टीका-हिन्दीविवेचन ]
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तिपत्तिः स्यात् । 'निविभागत्वादेकत्रोत्सारितावरणः सर्वत्रापनीता चरणोऽयमिति चेत् ! तर्हि तत एवैकवानपनीतावरणः सर्वत्र तथेति मनागपि श्रवण न स्यात् ।
___ अधार्धावृतघटादिवदभिव्यक्तः सन् सर्व एवायं गृह्यते यदवच्छेदेन संस्कारस्तदवच्छेदेन ग्रहणनियमाद नातिप्रसङ्गः । तदुक्तम्-“यथैवोत्पद्यमानोऽय न सर्वैरवगम्यते । दिदेशाद्यविभागेन सर्वान् प्रति भवन्नपि ।।१।। तथैव तत्समीपस्थैर्नादैः स्यादयस्य संस्कृतिः । तरेब गृह्यते शब्दो नदूरस्थैः कथञ्चन ॥२॥" [श्लो.बा.६।८४-८५] इति न दोष इति चेत् ? न, असिद्धमसिद्धेन साधयतो महासाहसिकतापत्तेः, घटस्याप्यावृताऽनावृतदेशयोः खण्डाऽखण्डपतिमासभेदेन मेदसाधनात , तद्वदस्य सबिभागत्वप्रसङ्गात् , सस्कृताऽसंस्कृतदेशभेदात्, अन्यथा सर्वात्मना सस्काराधानेऽन्यत्रावारकाणां शक्तेः प्रतिबद्धमशक्यत्वेनाएकत्र सुन पहनेयाला भी वर्ण सर्वत्र नहीं सुन पडता । अतः जिन स्थानों में वह नहीं सुन पडता उन स्थानों में उसे आवरणयुक्त मानना आवश्यक है और जब वह कहीं आवरणयुक्त होगा तो उक्त रीति से उस का सर्वत्र आवरणयुक्त होना अपरिहाये है।
[संस्काराबच्छेदकावच्छेदेन शब्दग्रहण की आशंका] यदि यह कहा जाय कि-' पूर्णरूप से ज्ञान और सर्वत्रज्ञान में भेद है। अतः एक वस्तु पूर्णरूप में ज्ञात होकर भी सर्वत्र अज्ञात हो सकती है। इसलिय यह कहा जा सकता है कि जैसे आधे भाग में ढका हुआ घर अभिव्यक्त होने पर पूर्ण रूप से गृहीत होते हुये भी आवृत्त भाग में अगृहीत रहता है उसी प्रकार शब्द भी अभिव्यक्त होने पर पूर्ण रूप से ही गृहीत होता है। किन्तु जिन स्थानों में आवृत्त रहता है उन स्थानों में भगृहीत रहता है । क्योंकि जिम देश में व्यञ्जक वायुसंयोग से शब्द का भावणापनयन द्वारक संस्कार होता है उस संस्कार से उस देश में ही शब्द ग्रहण का नियम है । अतः एक शब्द के अनावृत्त होने पर सर्वत्र अनावृत्त होने अथवा एकत्र आवृत्त होने पर सर्वत्र आवृत्त होने के प्रसंग मे एकत्र अभिव्यक शब्द के सर्वत्र ग्रहण अथवा एकत्र अनभिव्यक्त शब्द के सर्वत्र अग्रहण का प्रसङ्ग नहीं हो सकता। यह बात इस प्रकार स्पष्ट भी की गई है कि-"जैसे शब्द के अनित्यतापक्ष में जो शब्द उत्पन्न होता है वह दिग्देशविभाग से हीन होने के कारण सब मनुष्यों के दिये समान रूप में उत्पन्न होता है. फिर भी सब मनुष्यों द्वारा गृहीत नहीं होता किन्तु जिस के श्रोत्र से सन्निकृष्ट होता है उसी को गृहीत होता है, उसी प्रकार जिस मनुष्य के समीपस्थ नाद-स्वनि से जिस शब्द का आव. रणापनयन द्वारक संस्कार होता है वह शब्द उसी मनुष्य को गृहीत होता है । व्यञ्जक वनि से दूरस्थ मनुष्यों को कथमपि गृहीत नहीं होता"। अतः शब्दनित्यतापक्ष में उद्भावित उक्त दोष नहीं हो सकता ।
[घटवत् शब्द में सभागत्व की प्रसक्ति-उत्तर] तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि असिद्ध से असिद्ध का साधन करने पर माधक में महासाहसिकता की आपत्ति होगी और महासाहसिक यानी भविचककारी का कार्य मान्य नहीं होता। कहने का आशय यह है कि आवृतदेश में खण्डप्रतिभास और अनावृतदेश में अखण्डप्रतिभास के भेद से घट की भी भिन्नता सिद्ध होती है। अर्थात् घट के विषय में यह सिद्ध होता है कि घट विभिन्न अवययों के संयोग से उत्पन्न एक अखण्ड अवयवी द्रव्य नहीं है किन्तु अवयवों का समूह है, क्योंकि जब उस के कुछ अवयव आवृत होते हैं तब उस का खण्डप्रतिभास-आंशिक