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________________ अना [ शात्रवार्ता० स्त० १० / ३६ ऽकिञ्चित्करतयाऽतिप्रसङ्गस्य तादवस्थ्यात् । उत्पत्तिपक्षे त्वव्यापकत्वाद् यत्समीपवर्ती वर्ण उत्पन्नस्तेनैवास गृह्यते न दूरस्थैरिति नातिप्रसङ्गः । दिग्देशाद्यविभागेन.... इतेि चातवासंगतम्, गस्य कस्यचिद् वस्तुनोऽसंभवेनाऽनभ्युपगमात् । किञ्च व्यापकत्वेन वर्णानामेकावरणापायेन समानदेशत्वे सर्वेषामनानृतत्वाद् युगपत् सर्ववर्णश्रुतिः स्यात् । न च प्रतिनियतवर्णश्रवणान्यथानुपपत्त्या व्यञ्जकभेदसिद्धेनयिं दोषः स्यादिति वाच्यम्, तदभेदो ह्यावारक्रमेदेस्यात्, अभिन्नावारकापनेतू लभेदाऽसिद्धेः । आवारकमेदश्च वर्णदेशभेदे स्वात् समानदेशानामेकावारकेणैवापरावरणदर्शनात् । देश मेदोऽपि वर्णानामव्यापकत्वे सति स्याद, व्यापकत्वे तु परस्परदेशपरिहारेण तेषामनवस्थानाद देशभेदासिद्धेः । न चाडव्यापकत्व वर्णानामभ्युपगम्यते भवद्भिरिति । 1 १४२ ] दर्शन होता है और जब उस के समस्त अवयव अनावृत होते हैं तब उस का अखण्डप्रतिभान पूर्णदर्शन होता है । सो जैसे आवृत अनावृत देश के भेद से घट सभाग होता है उसी प्रकार वायुसंयोगरूप व्यञ्जक से संस्कृत और असंस्कृत देश के भेद से शब्द में भी सभागत्य की प्रसक्ति अपरिहार्य होगी | इस दोष के निवारणार्थ यदि वायुसंयोग से शब्द का सर्वात्मना संस्कार माना जायगा तो उस से अन्यत्र व्यञ्जक वायुशून्यस्थान में आधारक की शक्ति का प्रतिबन्ध शक्य न होने से व्यञ्जक वायु के समीप भी उस से आधारक की शक्ति का प्रतिबन्ध न होगा। फरत: व्यञ्जकवायु के समीप भी आवृत्त ही शब्द का प्रण मानना होगा और जब पक आवृत शब्द का ही श्रवण होगा तो अन्यत्र भी उस के अवण की आपत्ति दुर्गार होगी । शब्द के उत्पत्तिपक्ष में यह दोष सम्भव नहीं है क्योंकि उस पक्ष में शब्द अध्यापक है अतः जो शब्द जिस के समीप उत्पन्न होगा उस का श्रवण उसी को होगा दूरस्थ पुरुषों को नहीं होगा। शब्द के अनित्यतापक्ष में जो यह बात कही गई कि ' शब्द दिग् देश आदि के विभाग से दीन दोकर सब के प्रति समानरूप से उत्पन्न होता है वह ठीक नहीं है, क्योंकि निर्विभाग किसी भी वस्तु का सम्भव न होने से निर्विभाग शब्द की उत्पत्ति का अभ्युपगम अशक्य है ! [ एक शब्द के श्रवण में सर्वशब्द श्रवणपात्ति ] शब्दनित्यतापक्ष में एक दोष और है, वह यह कि नित्यतापक्ष में शब्द व्यापक होता है, सभी वर्ण सर्वत्र विद्यमान होते हैं अतः किसी एक देश में एकवर्ण के अनावृत होने पर उस देश में स्थित सभी वर्ण अनावृत होंगे, फलतः एक शब्द के श्रवण के समय सभी शब्दों के सहश्रवण की आपत्ति होगी । यदि यह कहा जाय कि पकस्थान में सभी वर्णों का श्रवण न होकर जो प्रतिनियत वर्णों का ही श्रवण होता है उस की प्रकारान्तर से उपपत्ति न हो सकने से विभिन्न शब्दों के लिये विभिन्न व्यञ्जकों की कल्पना होने से उक्त दोष नहीं हो सकता तो यह ठीक नहीं है क्योंकि व्यञ्जक का भेद आवारक के भेद पर निर्भर है । व्यञ्जक को अभिन्न आवारक का अपनयनकर्ता मानने पर उस में भेद की सिद्धि नहीं हो सकती 1 व्यञ्जकभेद की सिद्धि के लिये आधारक का भेद भी तभी सिद्ध होगा जब वर्णों के देश में भेद हो क्योंकि एकदेश में स्थित पदार्थों का एक ही आवरण आवारक होता है । वर्णों का देशभेद भी तभी होगा जब वर्ण अध्यपक हो, क्योंकि व्यापक मानने पर पक के देश को त्याग कर दूसरे का अत्रस्थान सम्भव न होने से देशभेद की सिद्धि नहीं हो सकती और वर्ण की अध्यापकता शब्दनित्यत्ववादी को मान्य नहीं है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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