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________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविषेचन । [१४३ व्यजकत्वाभिमतानां नावारकापनेतृत्वेन व्यञ्जकत्वम् , किन्तु वर्णे श्यस्वभावाधानात्, इत्युपगमे तु स्ववाचैव तस्य परिणामित्वमभिहितम् । 'स्वप्रतिपत्तौ सहकारित्वेनैव व्यञ्जकत्वम्', इत्यप्येकान्तनित्यस्य सहकार्यपेक्षाऽयोगाद् न शोभते, विजातीयवायुसंयोगानां कत्वादेरेव जन्यताबच्छेदकत्वौचित्याच, अन्यथा कोलाहलप्रत्ययानुपपत्तः, तत्र काविषयकत्वे च तारतम्यानुपपत्तेः । न च ध्वनिगतमेव तारतम्य तत्रारोप्यत इति सांप्रतम् , तस्याऽश्रावणत्वात् , विलक्षणतारतम्यानुभवाच्च । कत्वादिशब्दत्वादिप्रकारकपत्यझे पृथग्घेतुत्वे तु गौरवम् । न च कत्वादिप्रकारकप्रत्यक्षे दोषामावहेतुस्वमपेक्ष्य विजातीयवायुसंयोगहेतुत्वमावश्यकमिति युक्तम् , तत्र कोलाहलादावपि बहु-बहुविधादिमतिज्ञानभेदवतः कत्वादि-शुक्रीयत्वादिप्रकारकप्रत्यक्षोदयात्, तत्र दोषाऽभावहेतुत्वावश्यकत्वात् । न च [दृश्यस्वभाव के आधान में शब्द-परिणामिता सिद्धि ] यदि यह कहा जाय कि-'शब्दनित्यत्वषादी जिसे शब्द का व्यञ्जक मानते हैं वह शब्द के आवारक का अपनयन करने से शब्द का व्याक नहीं होता अपितु वर्ण में दृश्यस्वभाव का आधान करने से व्याक होता है।'-तो इस कथन से शब्द का परिणामित्व शब्दनिस्यत्ववादी के अपने वचन से ही उत्त हो जाता है जिस से शब्द का नित्यतापक्ष अनायास निरस्त हो जाता है। प्रण के प्रत्यक्ष में सहकारी होने से भी वायुसंयोग को वर्ण का व्यञ्जक मानना समीचीन नहीं हो सकता क्योंकि शब्दनित्यतावादी के मत में वर्ण एकान्त नित्य है और पकान्त नित्य में सहकारी की अपेक्षा युक्तिसंगत नहीं हो सकती क्योंकि सहकारी की अपेक्षा उसी वस्तु में युक्तिसंगत होती है जो सहकारी से उपकृत होता है। एकान्तनित्य वस्तु को सहकारी से उपकृत नहीं माना जा सकता क्योंकि उसे सहकारी से उपकृत मानने पर उपकारात्मना उस में अनित्यत्व की प्रसक्ति होने से उस की एकान्तनियता का भङ्ग हो जायगा। वर्ण को जन्य न मान कर नित्य तथा व्यङ्ग-श्य मानने में एक और दोष है घह यह कि ककारादिवर्ण के नित्य होने पर उस के प्रत्यक्ष को विजातीयघायुसंयोग से जन्य मानना होगा और ऐसा मानने में ककारादिविषयक प्रत्यक्षाव को घिजातीयवायुसंयोग का जन्यतावच्छेदक मानने में गौरव होता है, अतः लाघव की दृष्टि से कत्व, खत्व आदि वर्णधर्मों को ही विजातीयवायुसंयोग का जन्यतावच्छेदक मानना उचित है, इसलिये ककारादि वर्ण अन्य ही है, नित्य एवं व्यङ्गय नहीं है। [शब्द-अनुत्पत्तिपक्ष में कोलाहलपतीति की अनुत्पत्ति] यह मी झातव्य है कि विजातीयवायुसंयोग से ककार आदि की उत्पत्ति न मान कर कत्व आदि रूपों से ककारादि का प्रत्यक्ष मानने पर कोलाहल की प्रतीति की उपपत्ति न हो सकेगी क्योंकि जिस प्रतीति में शब्द के कत्वादि धर्मों का भान न होकर शादत्य मात्र काही भान होता है उसे ही 'कोलाहल प्रतीति' कही जाती है, किन्तु विजातीयवायुसंयोग जब ककार आदि का जनक न होकर कत्यादिप्रकारक प्रत्यक्ष का ही जनक होगा तो कत्यादि के भान से शुन्य शब्दप्रतीति के सम्भव न होने से कोलाहल प्रतीति न हो सकेगी। हाँ, जब ककार आदि की उत्पत्ति मानी जायगी तब तो अनेक वर्णों की पकस्थान में सहोत्पत्ति के दोष से कत्वादि के शान का प्रतिबन्ध होने से कन्धादिभानशून्य शब्दमात्र की प्रतीतिरूप कोलाहलप्रतीति के होने में कोई बाधा न होगी।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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