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________________ १४६] [शानवातास्त० १०/३६ कोलाहलादिकालीन-कत्यादिप्रकार प्रत्याश्ये गुणविशेषम्यैव हेतुत्वम् , तथापि विजातीयवायुसंयोगानां विशिष्य हेतुस्वे गौरदानपायात, गुणविशेषस्य क्षयोपशमविशेषद्वारकत्वेन 'यद्विशेष'. इति न्यायात् सामान्यत एव क्षयोपशमस्य हेतुत्वाच्च । न च स्वाश्रयविषयतयापि कस्वादिकं जन्यतावच्छेदफमिति यक्तुं युक्तम् , कादेः स्वगतधर्मानुविधायित्वेन साक्षादेव कत्वादेस्तत्त्वौचित्यात् , अन्यथा घटत्वादेरपि ज्ञानगतस्यैव तथात्वप्रसङ्गात् । एतेन शुकादिककारादेरपि विषयितया तथात्वं निरस्तम् , शब्दत्वादिग्रहेऽतिप्रसङ्गाऽनिरासाच्च । तदीयश्रवणसमवाये श्रावणत्वस्योपलक्षणत्वेऽतिप्रसङ्गतादवस्यात् । विशेषणत्वे तु प्रथमं केवलशब्दप्रत्यक्षस्वीकारेऽपसिद्धान्तापाता-चेति न किञ्चिदेतत् । एतेन 'नित्यत्वपक्षेऽपि इत्यारण्य दिगन्तं पूर्वपक्षोक्त प्रत्युक्तम् । तन्न वर्णसंस्कारपक्षो ज्यायान् । "कोलाहल की प्रतीति ककार आदि जन्य यौँ को विषय नहीं करती किन्तु दोपयश कत्वादि को विषय न कर नित्य ककार आदि को ही विषय करती है" ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर कोलाहल में प्रतीत होनेवाले तारतम्य की उपपत्ति न हो सकेगी । "युगपत् प्रतीयमान वर्षसमूहरूप कोलाहल में तारतम्य नहीं होता किन्तु उस के व्याक श्यनियों में तारतम्य होता है, कोलाहल में उस ध्वनितारतम्य का ही आरोप होता है"ऐसा भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि ध्वनि वायुरूप है, अतः उस के श्रवणाऽयोग्य तारतम्य का श्रवणाई कोलाहल में आरोप नहीं हो सकता । दूसरी बात यह है कि कोलाहल में ध्वनि के तारतम्य से विरक्षण तारतम्य का अनुभव होता है जो कोलाहल में व्यनितारतम्य के आरोप से नहीं उपपन्न हो सकता । [भिन्न भिन्न वायुसंयोग को कारण मानने में गौरव ] यदि कत्वादिप्रकारक प्रत्यक्ष में अन्यत्रायुमयांग को तथा शब्दत्वादिप्रकारक प्रत्यक्ष में अन्यवायुसंयोग को कारण मानकर कत्यादिग्राहक वायुसंयोग के अभाव में शब्दत्यादिग्राहक वायुसयोग से कोलाहलातीति की उपपत्ति की जायगी तो यहां दो प्रकार के विभिन्न कार्यकारणभाव की कल्पना करने में गौरव होगा । यदि कत्वादि प्रकारक प्रत्यक्ष में घिरोधी दोष के अभाव को भी कारण मानने की अपेक्षा विजातीय वायुसंयोग को ही उसका कारण माना आयगा, एवं कोलाहलस्थल में उस संयोग का अभाय होने से कत्वादिप्रकारक प्रत्यक्ष की अनु. नपत्ति का उत्पादन किया जायगा-तो यह प्रकार भी उचित न होगा क्योंकि जिस पुरुष को बहु-बहुविध आदि विभिन्न मतिशान होते हैं, उसे कोलाहल आदि में भी कत्व आदि एवं शुक्रीयत्व आदि का ग्रहण होता है, वह कोलाहलगत ककार आदि वर्गों को कत्यादिरूप से और यदि घे वर्ण शुकादि के होते हैं तो उन्हें शुकीयत्व आदि रूप से भी ग्रहण करता है अतः कोलाहल के प्रत्यक्षस्थल में भी दोषाभावरूप हेतु का सन्निधान आवश्यक होने से कत्वादिप्रका रक प्रत्यक्ष में दीपाभात्र की हेतुता आवश्यक है। [गुणविशेष की कारणता की शंका का उत्तर ] यदि यह कहा जाय कि -कोलाहल आदि के समय जो कत्वादि प्रफारक प्रत्यक्ष होता है उसमें गुणविशेष ही कारण होता है जो बहु-बहुविध आदि विभिन्न मतिज्ञान के धारक पुरुष में विधमान होने से उसे कोलाहल में कत्यादि का प्रत्यक्ष उत्पन्न करता है, अत: कत्यादि
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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