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स्या. क. टीका-हिन्दीविधचन ]
प्रकारक प्रत्यक्ष में दोषाभाव को कारण मानने में कोई युक्ति नहीं है'-तो यह कथन भी उचित नहीं है क्योकि कोलाहल स्थानीय कस्यादि प्रत्यक्ष में गुणविशेष को कारण मानने पर भी अन्यस्थानीय फत्वादि प्रत्यक्ष में विज्ञानीयवायुसंयोग को कारण मानना अनिवार्य होने से विभिन्न कार्यकारणभाव की कल्पना से प्रसक्त गौरव की मिति नहीं होती। दूसरी बात यह कि गुणविशेष को भी क्षयोपशम विशेष बाग ही कारण मानना होगा, अतः प्रत्यक्षविशेष और क्षयोपशम विशेष में कार्यकारण भाव होने से यद्विशेषयोः कार्यकारणभावः स तत्सामान्ययोरपि-जिन वस्तुओं में विशेषरूप से कार्यकारणभाव होता है उनमें सामान्य रूप से भी कार्यकारणभाव होता है' इस नियम के अनुसार प्रत्यक्ष और क्षयोपदाम में सामान्यरूप से कार्यकारणभाव का अभ्युपगम अनिवार्य है। अतः कत्यादि प्रकारक प्रत्यक्ष के विषय में यह व्यवस्था ही उचित है कि जब कत्वादि धर्मों के आवरण का क्षयोपशम होता है तब कल्यादिप्रकारक प्रत्यक्ष होता है और जब उक्त प्रयोपशम ही होता तन कम्पादिप्रकारक प्रत्यक्ष नहीं होता । अत. घिजातीयवायुमंयोग को कत्यादिप्रकारक. प्रत्यक्ष का जनक न मान कर ककार आदि का ही जनक मानना उचित है। क्योंकि कत्वादिप्रकारक प्रत्यक्षत्व को विजातीयवायुसंयोग का जन्यतावच्छेदक मानने की अपेक्षा कत्यादि को उसका जन्यतावच्छेदक मानने में लाधव है।
[विषयिता सम्बन्ध से जन्यतावच्छेदकता मानने पर आपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि- वर्णनिन्यतापक्ष में भी कत्यादिप्रकारकप्रत्यक्षत्व को विजातीयवायुमयोग का जन्यतावच्छेदक न मान कर स्वाध्रय विषयकत्वसम्बन्ध से कत्यादि को ही जन्यतावच्छेदक मानने से गौरव न होगा'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ककार आदि वर्ण अपने कब आदि धर्मों का अनुविधान करते हैं, अतः कत्यकारक प्रत्यक्ष के कारण द्वारा ही उस में ककारादिविषयकस्त्र की उपपत्ति हो जाने से ककार आदि से घटित स्वाश्रय विषयकत्व सम्बन्ध से कत्वादि को जन्यतापदक मानने की अपेक्षा समवायरूप साक्षात् सम्बन्ध से ही कवादि को जन्यतावच्छेदक मानमा उचित है। यदि समवाय और विषयिता दोनों के साक्षात् सम्बन्ध रूप होने से विषयिता सम्बन्ध से कत्यादि को अन्यताषच्छेदक मानकर वर्णनित्यतापक्ष का समर्थन किया जायगा तो विषयिता सम्बन्ध से झानगत घटत्व आदि को जन्यतावच्छेदक मान कर बट आदि की भी जन्यता के अपलाप की आपत्ति होगी।
वणे नित्यत्ववादी की ओर से यह भी कहा जा सकता है कि 'वर्णनित्यतापक्ष में ककार आदि वर्ण अनेक न होकर एक-पक व्यक्तिरूप है अतः उनमें कत्वादि सामान्य धर्म का अस्तित्व अप्रामाणिक होने से शुकादि से व्यक्त ककार आदि ही विषयिता सम्बन्ध से विज्ञानीयवायु संयोग का जन्यतावच्छेदक है। किन्तु यह कथन भी निदोष नहीं है क्योंफि शब्दत्वादिप्रत्यक्ष का कोई अन्य कारण न मानने पर ककार आदि के प्रत्यक्ष के कारण का सन्निधान होने पर सदेव शब्दत्वादिरूप से ककार आदि के प्रत्यक्ष की आपत्ति होने से वितिकरूप में ककार आदि का प्रत्यक्ष न हो सकेगा ।
यदि यह कहा जाय कि- "ककार आदि का प्रत्यक्ष होने पर शरदत्व आदि का प्रत्यक्ष होता ही है, साथ ही मन्तदन्यक्तित्यरूप से भी प्रत्यक्ष होने से ककार आदि के विधिक्त प्रत्यक्ष की अनुपपसि भी नहीं होती । एवं कोलाहल स्थल में भी ककार आदि का प्रत्यक्ष न होने से शब्दत्व आदि के प्रत्यक्ष का अतिप्रसङ्ग भी नहीं हो सकता, क्योंकि तत्पुरुष के श्रवण में