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[ शासवार्ताः स्त० १०/३६ नापि श्रोत्रसंस्कारपक्षो युक्तः, तस्मिन्नपि पक्ष हि सकृत् संस्कृतं श्रोत्रं सर्ववर्णान् युगपत् शृणुयात् । न ह्यञ्जनादिना संस्कृतं चक्षुः संनिहितं स्वविषयं किञ्चित् पश्यति किञ्चिद् नेति दृष्टम् । न वा बाधिर्यनिराकरणद्वारा तैलविशेषादिसंस्कृतं श्रोत्रं गकारादिकमेव शृणोति न खकारादिकमिति दृष्टम् ।
नच-समानेन्द्रियग्राह्येष्वप्यर्थेषु व्याखकप्रतिनियमो दृष्टः, तेलाभ्यनस्य मरीचिभिभमेमेघोदकसेकेन गन्धाभिव्यक्तिभेदात् । तथा च व्यञ्जकैर्वायुभिभिन्नेषु कर्णमूलावयवेषु वर्तमानैः प्रतिनियतवर्णग्राहकतयैव श्रोत्रे संस्काराधायकत्वाद् नैकवर्णग्राहकत्वेन संस्कृतं श्रोत्रं सर्ववर्णान् युगपद् गृहणाति । तदुक्तम्
समवेन वस्तु के प्रत्यक्ष में तत्पुरुष के श्रवण का समवाय कारण होता है अतः कोलाहलस्थल में ककारादि का श्रात्रण न होने से शश्वत्व में भाषण समवाय न होने से उसका प्रत्यक्ष नहीं प्रसक्त हो सकता"-तो यह ठीक महीं है क्योंकि भावणसमघायरूप कारण के शरीर में श्रावणत्व को उपलक्षण मानने पर कोलाहलम्थल में ककार आदि का श्रावण न होने पर भी उसके श्रावणत्व से उपलशित होने से कारण का सन्निधान ध्रुव है और यदि श्रावणत्व को विशेषण माना जायगा तो सर्वप्रथम शब्दत्यादि से मुक्त शब्दमात्र का श्रावणप्रत्यक्ष मान कर ही शब्दत्यादि का प्रत्यक्ष मानने से अपसिद्वान्त होगा क्योंकि शब्दत्यादि से मुक्त शब्द का प्रत्यक्ष सिद्धान्तविरुद्ध है। उक्त रीति से विचार करने पर प्रस्तुत स्तषक की पांचवी कारिका की व्याख्या में नित्यत्वपक्षेऽपि से(पृ. २६ पं० २)प्रारम्भ कर विग शब्दपर्यन्त (पृ० २७ पं० ८) . चर्चित पूर्णपक्ष निरस्त हो जाता है । अतः वर्णमस्कारपक्ष समीचीन नहीं है।
[व्यक द्वारा श्रोत्र के संस्कारपक्ष में सर्ववर्णग्रहणापत्ति ] न्यनक से श्रोत्र का संस्कार होता है यह पक्ष भी समीचीन नहीं है क्योंकि विजातीय वायुसंयोग से श्रोत्र का पक घार संस्कार हो जाने पर उससे सभी वर्गों का एक साथ ग्रहण होना चाहिये, पर एसा नहीं होता । ग्रहण के साधन का संस्कार होने पर उसके ग्राद्य पदार्थों में से किसी का ग्रहण हो, किसी का न हो, ऐसा नहीं हो सकता । जैसे यह नहीं देखा जाता कि व्यञ्जन आदि से चक्षु का संस्कार होने पर उससे किसी सन्निहित वस्तु का दर्शन हो और अन्य सन्निहित वस्तु का दर्शन न हो । किन्तु देवा यह जाता है कि सन्निहित ग्रहण योग्य सभी वस्तुओं का युगपद् दर्शन होता हैं। इसी प्रकार यह भी नहीं देखा जाता कि तेलषिशेष आदि से श्रोत्र का संस्कार होने पर बाधिर्य आदि का निरास हो जाने पर श्रोत्र से गकार आदि वर्गों का ही श्रवण हो और खकार आदि का न हो । किन्तु देखा यह जाता है कि सम्कृत श्रोत्र से समानरूप से सभी वर्गों का ग्रहण होता है । अतः शब्द के व्याक द्वारा श्रोत्र का संस्कार मानने पर सभी शब्दों के युगपत् श्रवण की आपति अनिवार्य है क्योंकि शब्द नित्यता पक्ष में सभी शब्द सदेव श्रोत्र से सन्निहित होते हैं।
[ प्रतिनियतवर्णग्रहणानुकुल संस्कार जनक व्यञ्जक की आशंका ] आपाततः यद्यपि यह कहा जा सकता है कि -एक इन्द्रिय से ग्रहणयोग्य पदार्थों में भी व्याक की पृथक् पृथक् भयवस्था देखी जाती है । जैसे; सभी गन्ध घाण से ग्राह्य होते हैं, किन्तु व्यजक भेव से प्राण द्वारा उनका प्रहण विलक्षण होता है। उदाहरण के रूप में तैल •