________________
३२ ]
व्यवस्थान्तरमपि तत एवोपपादयन्नाह -
वर्णाश्रमव्यवस्थापि तत्प्रभवैव हि । अतीन्द्रियार्थद्रष्ट्रा तन्नास्ति किञ्चित्प्रयोजनम् ॥११॥ अत्रापि ब्रुव केचिदित्थं सर्वज्ञवादिनः । प्रमाणपञ्चकावृत्तिः कथं तत्रोपपद्यते ? ||१२|| एवं वर्णानां ब्राह्मण -- - क्षत्रिय वैश्य - शूद्राणां आश्रमाणां च गृहि ब्रह्मचारि - वानप्रस्थ-संन्यासिलक्षणानां व्यवस्थापि सर्वा = लोकविदिता, हि = निश्चितम् तत्प्रभचैव वेदमूलैब, वेदादि नोपवीतादिना विशेष बन्ध्याचल व वाहण्यादिनिर्णयात् ब्राह्मण्यादिनां कर्मविशेषेऽविकारनिर्णयाचेति भावः । ततः किम्? इत्याह- अतीन्द्रियार्थद्रष्ट्रा = अतीन्द्रियार्थदर्शिना पुंसा, नास्ति प्रयोजनं किञ्चित्, तत्साध्यस्य परलोकादिसाधनस्य वेदादेव सिद्धेः । मुक्तिश्च न सार्वश्यगर्भा, दुःखनिवृत्तिरूपाया नित्यनिरतिशय सुखाभिव्यक्तिरूपायास्तस्यास्तद्गर्भत्वादिति निगर्वः ॥११॥
इत्थमापति जैमिनिशिध्ये नास्तिकत्वमिह यत्खलु गूढम् । दर्शयन्ति तदने कसमक्षं वेदनेपुणपटापगमेन ॥ १ ॥
[ शात्रवार्ता० १०/११-१२
1
से इस क्रिया को श्रेय कहा जाता है। इस प्रकार इष्ट, पूर्व और श्रेय इस त्रिविध कर्म की वेद से ही होती है। उस के लिये किसी सर्वज्ञ का अस्तित्व मानना अनावश्यक है ||१०||
[ वेद से ही वर्णाश्रमादि की व्यवस्था ]
ग्यारह कारिका में यह बताया गया है कि धार्मिक और सामाजिक अन्य व्यवस्थायें भी वेद से ही उपपत्र होती हैं। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र वर्णों की और ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन आश्रमों की लोक-प्रसिद्ध सारी व्यवस्था निश्चितरूप से वेदमूलक ही है, जैसे वेद आदि का अध्ययन-अध्यापन उपवीत सूत्र, शिखा आदि निह्न, सन्ध्या तथा 'यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह' रूप षट् कर्म आदि के आचरण से ब्राह्मणत्व का निर्णय होता है । एवं क्षत्रिय आदि के शास्त्रोक्त चित्र आदि से क्षत्रिय आदि का निश्रय होता है, तथा कर्म विशेष में ब्राह्मण आदि के अधिकार आदि का निर्णय होता है । इसलिये अतीन्द्रिय अर्थों के किसी सश की कल्पना का प्रयोजन नहीं है। क्योंकि सर्वश द्वारा परलोक आदि के जिन साधनों की सिद्धि अपेक्षित है उन की सिद्धि अपौरुषेय वेद से ही हो जाती हैं। मुक्ति भी सर्वज्ञता से घटित नहीं हैं किन्तु दुःखनिवृत्तिरूप अथवा नित्य निरतिशय सुख की अभिव्यक्ति स्वरूप है उस में सर्वज्ञता का अन्तर्भाव नहीं है ||११||
व्याख्याकारने बारदर्षी कारिका के अभिप्राय को अपने एक पथ के द्वारा संकेतित । जिस का आशय यह है कि
किया
" उक्त रीति से जैमिनी के शिष्यों में प्रच्छन्न रूपसे नास्तिकता प्रसत होती हैं । सर्वसत्तावादी विद्वान उस नास्तिकता को अनेक लोगों के समक्ष उन की वेदनिपुणता के पट का अपसारण कर के प्रदर्शित करते हैं । "