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स्या. क. टीका-हिन्दी विधेचन] ऋत्विग्भिमन्त्रसंस्कार ह्मणानां समक्षतः । अन्तर्वद्या तु बहत्तमिधं तदभिधीयते ॥८॥ बापी-कूप-तडागानि देवतायतनानि च । अन्नप्रदानमित्येतत्पूर्तमित्यभिधीयते ॥५॥ अतोऽपि शुक्लं यत् वृत्तं निरीहस्य महात्मनः । ध्यानादि मोक्षफलदं श्रेयस्तदभिधीयते ॥१०॥
सादिस्वरूपनाइ-लिभिः- प्रलमानशहा में; मन्त्रसंस्कारैः पूतं सद् यद् ब्राह्मणानां समक्षतः प्रकृतप्रतिग्रहीत्रतिरिक्तब्राह्मणानां प्रत्यक्षम्, अन्तर्वेद्यां वेदीमध्य एव दत्त हिरण्यादि, सदिष्टमभिधीयते ।। ८॥
तथा वापी-कूप-तडागानि च पुनः देवताऽऽयतनानि लोकसिद्धानि, तथा अन्नप्रदान भोजनदानम् , इत्येतत् सबै 'पूर्तम्' इत्यभिधीयते, मोगफलत्वात् ॥ ९॥
तथा—अतोऽपि इष्टा-पूर्तात् , शुक्लं-शुद्धमित्यर्थः, यद् वृत्तम् आचरितम् निरीहस्यनिःस्पृहस्य, महात्मनः योगिनः, किं तत् ? इत्याह ध्यानादि । किभूतम् ? इत्याह-मोक्षफलदम्अपवर्गरूपफलप्रदम्, तत् श्रेयोऽभिधीयते, श्रेयोहेतुत्वात् । एवमिष्टम् , पूर्तम् , श्रेयश्चेति त्रिधा कर्मव्यवस्था वेदादेवेत्युपपादितम् ॥१०॥
[इष्टा-पूर्तादि कर्मों का स्वरूप ] आठवीं कारिका में इट का परिचय दिया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
यममान और याशिक यज्ञ के अनुष्ठापक, मन्त्रमूलक संस्कारों से परिपूत जिस वस्तु का प्रतिमाहीता से अतिरिक्त ब्राह्मणों के समक्ष वेदी के मध्य में दान करते हैं ऐसी सुवर्ण आदि वस्तु को इष्ट कहा जाता है। वस्तुतः सन्दर्भागत इष्ट शब्द यज् धातु से भाव में क्त प्रत्यय से बना है, भाव प्रत्यय का प्रकृत्यर्थ से अतिरिक कोई अर्थ नहीं होता अतः यन् धातु का अर्थ ही इष्ट शब्द से बोध्य है और यज् धातु का अर्थ है देवपूजन, यजन, संगतिकरण और दान । यज् धातु से बोधित ये कर्म जब यजमान और याक्षिकों द्वारा वैदिक मन्त्रों के माध्यम से सुघणं आदि संस्कृत व्यों से सम्पादित होते हैं तो ये ही कर्म 'पष्ट' कहे जाते हैं। अत: इष्ट शब्द का इस सन्दर्भ में अभिप्रेत अर्थ है-वेदसाध्ययम ||
नवीं कारिका में 'पूर्त' का परिचय दिया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
बाव, कूप और तालाब एवं देवमन्दिर आदि सर्वजन उपयोगी पदार्थ पवं सत्पात्रों को शास्त्रोक्त रीति से अन्नदान, इन सब को पूरी कहा जाता है। इन का विधिविधाम धर्मशास्त्र और पुराणों से विदित होता है। इसीलिये वापी आदि का निर्माण एवं अन्नदान को पूर्त कहा जाता है। इन्हें पुर्त इमीलिए कहा जाता है कि इन से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है ॥९॥
दशवीं कारिका में इष्ट और प्रत्तं दोनों से श्रेष्ठ धर्म का प्रतिपादन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
निःस्पृह महात्मा द्वारा की जानेवाली ध्यान आदि क्रिया इष्टं और पूर्व से भी श्रेष्ठ है। यह क्रिया मोक्षरूप सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ की साधक होती है। परमपुरुषार्थरूप श्रेय की साधक होने