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________________ ३० ] [ शात्रवार्ता० १०/७ यथा वेदाद् धर्माधर्मपरिज्ञानं सिध्यति तथाह इटा पूर्णादिभेदोऽस्मात् सर्वलोकप्रतिष्ठितः । व्यवहारप्रसिद्धैव यथैव दिवसादयः ॥ ७॥ इष्टा-पूर्णादिभेदः अस्मात्-वेदात् सर्वलोकप्रतिष्ठितः = सर्वजनसिद्धः । ननु सर्गादाविष्टा - पूर्वादिभेदधर्मस्य कथं सिद्धि:, सर्वज्ञाभाव आदिसंप्रदायाऽप्रवृत्तेः ? इत्यत आह-व्यवहारप्रसिद्धचैव यवद्दारस्यानुष्ठानस्य प्रकृष्टाऽनादिपरम्परा प्रयोज्या या सिद्धिस्तयैव तथा च सर्ग-प्रलयाभावात् प्रवाह चिच्छेदाभावाद नाथसंप्रदायाऽप्रवृत्तिरिति भावः । कथं व्यवहारोऽनादिः इत्यत्र निदर्शनमाह-यथैव दिवसादयः यथा दिवसादयो दिवसादिपूर्वका एव दृश्यन्ते तथा व्यवहा रोऽपि व्यवहारपूर्वक इति भावः ॥७॥ का आधार महाजनों द्वारा वेदों का परिग्रह ही है क्योंकि यदि वेद महाजनों से परिगृहीत न होता तो वेद को सर्वशप्रणीत मानने की आवश्यकता न होती । अतः उचित यही है कि महाजन परिक्ष के आधार पर ही देश का समाय्य स्वीकार किया जाय न कि महाजन परिषद के आधार पर कल्पित सर्वेश की रचना होने के नाते उस का प्रामाण्य स्वीकार किया जाय || ६ || [ सृष्टि का प्रारम्भ और अन्त असंगत है ] off काfरका में वेद से धर्म-अधर्म के ज्ञान की सिद्धि का प्रकार बताया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है--- स्पर्त आदि धर्मभेद वेद से होता है यह सर्वविदित है । सर्वश न मानने पर आध सम्प्रदाय का प्रवर्तन अशक्य होने से सर्गसृष्टि के प्रारम्भ में इष्टापूर्त आदि विभिन्न धर्म की सिद्धि कैसे हो सकती है - इस प्रश्न का समाधान कारिका के उत्तरार्द्ध में यह कह कर किया गया है कि इटा आदि धर्मभेद का अनुष्ठानरूप व्यवहार अनादिमान्य परम्परा से सिद्ध है । इस परम्परा से ही उत्तरोत्तर लोगों की स्वर्गादि फल के उद्देश से वेदोक्त धर्मों के अनुष्धान में प्रवृत्ति होती है । संसार की सृष्टि पयं प्रलय नहीं होता, इस का प्रवाह अधि for है। ऐसा कोई समय संभव नहीं है जब वेदों के अध्ययन अध्यापन और वैदिक धर्मों के अनुष्ठान की परम्परा विश्व में कहीं न होती हो । संसार के सम्बन्ध में इस प्रामाणिक मान्यता की स्थिति में सम्प्रदाय के प्रारम्भ का प्रश्न ही नहीं उठता, अतः अथ सम्प्रदाय की प्रवृत्ति को अशक्य बता कर वैदिक धर्मों के अनुष्ठान परम्परा की अनुपपत्ति का प्रश्न नहीं उठाया जा सकता । वेदमूलक धर्मानुष्ठानरूप व्यवहार की अनादिता बताने के लिये दिवस आदिके अनुष्ठान का दृष्टान्त दिया गया है । इस दृष्टान्त से यह अनायास ही अवगत किया जा सकता है कि जैसे दिन दिनपूर्वक ही होता है, एवं रात्रि रात्रिपूर्वक ही होती है, कोई दिन या कोई रात्रि सर्वप्रथम नहीं होती उसीप्रकार वैदिक व्यवहार भी व्यवहार पूर्वक ही होता है, कोई व्यवहार सर्वप्रथम नहीं होता । अतः सर्वश का अभाव होने पर भी वैदिक व्यवहार की अनादि परम्परा के वेद द्वारा गृहीत इष्टापूर्त आदि धर्मों के अनुष्ठान की उपपत्ति में कोई बाधा नहीं है ||७||
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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