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स्था. क. दीका-हिन्दी विवेचन )
अत्रापि-मीमांसकानां सर्वज्ञाभावचादेऽपि समुपस्थिते ब्रुवते केचित् सर्वज्ञवादिनो जैनाः इत्यम् एव, यदुत-प्रमाणपञ्चकाऽवृत्ति प्रमाणपश्चकाविषयत्वम् कथं तत्र सर्वज्ञे अभावप्रमाणोस्थापकम् उपपद्यते ! नैथोपपद्यत इति भावः ।।१२।। सर्वार्थविषयं तच्चत्प्रत्यक्षं तनिषेधकृन् । अभावः कथमेतस्य, न चेदत्राप्यदः समम् १ ॥१३॥
तथाहि-यत् तावदुक्तम् प्रत्यक्षेण....(श्लो. २) इत्यादि, तन्=प्रक्रान्तम् तन्निषेधकृत= सर्वज्ञनिषेधकारि प्रत्यक्ष, चेत् यदि सर्वार्थविषय=विश्वगोचरम्, तदा एतस्य सर्वज्ञस्य अभावः कथम् ! विश्वगोचरज्ञानाश्रयस्यैव सर्वज्ञत्वात् । न चेत् तत् प्रत्यक्ष सर्वार्थविषयम्, अत्रापि
बारहवीं कारिका का अर्थ इस प्रकार है
मीमांसकों द्वारा सर्वज्ञाभाववाद प्रस्तुत होने पर, सर्वश्रवादी जनों का यह कहना है कि सर्च को प्रमाणपञ्चक का अविषय बताकर उस के निषेध को सिद्ध करने के लिये अभावप्रमाण का उत्थापन कैसे संभव हो सकता है। विचार करने पर यह कथमपि संभव प्रतीत नहीं होता परशा
[प्रत्यक्ष के अभाव से सर्वज्ञाभावकी सिद्धि अशक्य ] १३वीं कारिका में इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि प्रत्यक्ष सर्वश-मिद्धि में पाधक नहीं हो सकता है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है__सर्वश का निषेध करनेवाला प्रत्यक्ष यदि मर्याविषयक होगा मो सर्वज्ञ का अभाव नहीं सिद्ध हो सकता क्योंकि सर्वविषयक प्रत्यक्ष ही मशता है और उसे मान लेने पर उस के आश्रयभूत सर्वज्ञ की सिद्धि अपरिहार्य है। और यदि प्रत्यक्ष सर्वार्थविषयक न होगा तो इस पक्ष में भी सर्वज्ञ का अभात्र निन्द्र नहीं हो सकता क्योंकि प्रत्यक्ष में सर्यग्राहित्य का नियम न होने पर, प्रत्यक्ष का विषय न होने पर भी मर्य का अभ्युपगम सम्भव हो सकता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष के सर्वार्थविषयकस्य और सर्वार्थविषयकत्याभात्र दोनों पक्षों में सशाभाग के साधन की अशक्यता तुल्य है। ___ यचपि पूर्वकारिका में सर्वशाभाव को सिद्ध करने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण का उपन्यास नहीं किया गया है अत: इस कारिका में, प्रत्यक्ष प्रमाण में सर्वज्ञ के अभाव की साधकता का निराकरण आपाततः उचित नहीं प्रतीत होता, किन्तु घास्तव में यह अनुचित नहीं है क्योंकि प्रत्यक्षाभाय से सर्वज्ञाभाय का साधन करने से ही यह प्रश्न उपस्थित होता हैं कि क्या प्रत्यक्ष सर्व विषयक होता है अर्थात् जो कुछ है उस सच का प्रत्यक्ष होता ही है ? यदि पंसा हो तभी यह निष्कर्षे निकल सकता है कि जिस का प्रत्यक्ष नहीं है वह असत् है। किन्तु यदि सा माना जायगा कि प्रत्यक्ष सर्व विषयक होता है तब तो उस प्रत्यन का जो अप्रिय होगा वही सर्वश हो जायगा, अत: सर्वज्ञाभाव की सिद्धि नहीं हो सकेगी। और यदि मर्यविषयक प्रत्यक्ष का अस्तित्व स्वीकार न किया जायगा तो इस का अर्थ होगा कि अप्रत्यक्ष यस्तु की भी सत्ता होती है अतः अप्रत्यक्ष संबंध का निराकरण प्रत्यक्षाभाष द्वाग न हो सकेगा, क्योंकि विद्यमान अर्थ का भी अतिवरत्छ आदि दोष से प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण नहीं होता।